सालों पहले द्वापर युग में यशोदा माँ ने कृष्ण जी से कहा, “कान्हा, तुमने सारे संसार को बनाया, उसका पोषण किया और संहार करने की भी ताकत रखते हो। आज मुझे तुम किसी ऐसे व्रत के बारे में बताओ जो धरती की सभी महिलाओं का विधवा होने का भय खत्म कर दे और व्रती की सभी कामनाओं को पूरा कर दे।”
माँ की बात सुनते ही भगवान कृष्ण ने कहा, “माते, आपने बड़ा ही अच्छा प्रश्न किया है। मैं विस्तार से आपको ऐसे एक व्रत के बारे में बताता हूँ। यह पूर्णिमा का व्रत है, जिसे करके महिलाओं को सौभाग्य मिलेगा। इसके लिए महिलाओं को पूरी 32 पूर्णमासी व्रत करना होगा। इस व्रत को करने से सौभाग्य और सम्पत्ति दोनों की प्राप्ति होती है। इस व्रत को करने वाले के मन में भगवान शिव के लिए भक्ति भाव बढ़ने लगता है।”
फिर यशोदा मैय्या पूछने लगीं, “कान्हा, यह व्रत धरती पर सबसे पहले किसने किया था?”
श्रीकृष्ण ने बताया, “माँ सबसे पहले मृत्युलोक यानी धरती पर 32 पूर्णमासियों का व्रत एक ब्राह्मण धनेश्वर और उसकी धर्मपत्नी ने किया था। वह एक प्रसिद्ध नगर कातिका में रहता था। ब्राह्मण और उसकी पत्नी का आपस में बड़ा प्रेम था। उनके घर में किसी भी तरह की कमी नहीं थी। धन-संपत्ति और प्रतिष्ठा सबकुछ उनके पास था। बस नहीं थी तो कोई संतान, जो उन्हें माता-पिता कह सके।”
“इस बात से दोनों ही बड़े दुखी रहते थे। एक दिन कातिका नगरी में एक प्रसिद्ध योगी पहुँचे। वो रोज़ाना उस नगरी के सभी लोगों के घरों से दान लेकर भोजन करते थे, लेकिन कभी उस ब्राह्मण की पत्नी से कुछ नहीं लिया।”
“एक दिन वह योगी दान देने के लिए खड़ी ब्राह्मण की पत्नी रूपवती से दान लेने की जगह किसी दूसरे घर से दान लेकर गंगा किनारे चले गए। उन्हें भिक्षा में जो भी अन्न व अन्य खाद्य पदार्थ मिला था, वह उसे प्यार से खाने लगे। धनेश्वर ब्राह्मण ने यह सबकुछ देख लिया।”
“मन से धनेश्वर दुखी था। उसने योगी द्वारा भिक्षा का इस तरह अनादर होता देख उनसे पूछ लिया, “महाराज, आप सारे घरों से दान व भिक्षा लेते हैं, लेकिन कभी मेरे घर से नहीं लिया। क्या इसके पीछे कोई कारण है? हमसे कोई भूल हो गई है क्या?”
“योगी ने एकदम से कह दिया, वह घर जिसमें संतान ना हो, वहाँ का दान व भीख लेने से इंसान पतित यानी नीच हो जाता है। मुझे पता है कि तुम्हें संतान सुख नहीं मिला है। अब अगर मैं तुम्हारे यहाँ से कुछ ले लूँगा, तो मैं भी पतित हो जाऊँगा।”
“योगी के मुँह से ऐसी बातें सुनकर धनेश्वर ब्राह्मण उनके पैरों में गिरकर दुखी मन से कहने लगा, “ऐसी वजह है, तो आप मुझे पुत्र धन प्राप्त करने का कोई मार्ग बता दीजिए। हम संतान सुख ना मिलने से बेहद व्यथित हैं।”
“योगी को ब्राह्मण के ऊपर दया आ गई और उसे चण्डी माँ की आराधना करने के लिए कहा। योगी को प्रणाम करके और धन्यवाद कहते हुए वह ब्राह्मण अपने घर चला गया। घर पहुँचते ही उसने अपनी पत्नी को पूरी घटना बता दी। उसके बाद चण्डी माँ को खुश करने के लिए जप-तप करने जंगल चला गया।”
“वन पहुँचकर उस ब्राह्मण ने चण्डी माँ की मन लगाकर उपासना की और व्रत भी किये। व्रत के 16वें दिन में चण्डी देवी उस ब्राह्मण के सपने में आईं और कहा कि मैं तुमसे प्रसन्न हूँ और तुम्हें पुत्र रत्न का आशीर्वाद देना चाहती हूँ। मगर तुम्हारे बेटे की 16वें साल की उम्र में ही मृत्यु हो जाएगी। हाँ, अगर तुम और तुम्हारी पत्नी दोनों मिलकर 32 पूर्णमासी का व्रत पूरे नियम और विधि से करोगे, तो तुम्हारे पुत्र की आयु लंबी होगी। तुम रोज़ आटे से दीप बनाकर भोले नाथ की पूजा करना। बस पूर्णमासी तक तुम्हारे पास आटे के 32 दीप होने चाहिए।”
“सुबह तुम्हें पास में एक आम का वृक्ष दिखेगा। उस पर चढ़कर आम का एक फल तोड़कर जल्दी से उस पेड़ पर से उतरकर घर जाना होगा। उसके बाद अपनी पत्नी को यह सब बताना। फिर तुम्हारी पत्नी जब स्नान कर ले, तो उसे भोले शंकर का ध्यान लगाते हुए तोड़ा हुआ आम का फल खाने के लिए कहना। इससे भगवत कृपा के चलते उसका गर्भ ठहर जाएगा।”
“सपने में माँ द्वारा बताई गई सारी बातों का उस ब्राह्मण ने पालन करने की ठान ली। सुबह स्नान करके जब ब्राह्मण उस आम के पेड़ पर चढ़ने की कोशिश करने लगा, तो वो वह नहीं चढ़ पाया। तभी उसने विघ्नों को दूर करने वाले श्रीगणेश की वंदना की। उनसे खुद पर कृपा करते हुए पेड़ पर चढ़ने का बल माँगा, ताकि वह संतान प्राप्ति का मनोरथ पूरा कर सके।”
“धनेश्वर ब्राह्मण बार-बार बड़े ही प्रेम से विघ्न हरता, मंगल कार्य करने वाले, ऋद्धि-सिद्धि देने वाले गणेश जी मुझपर कृपा करें, कहता रहा। ब्राह्मण से प्रसन्न होकर गणेश जी ने उसे पेड़ पर चढ़ने का बल दे दिया। धनेश्वर ने पेड़ पर चढ़ते ही तेज़ी से एक फल तोड़ा और दौड़ते हुए घर चला गया।”
“उसने फिर देवी माँ के कहे अनुसार ही अपनी पत्नी को सबकुछ बताया और जल्दी से नहाकर वह फल खाने का आग्रह किया। पत्नी ने भी पति की बात मानते हुए स्नान करके भोले बाबा का ध्यान लगाकर उस फल को खा लिया। देवी माँ की कृपा से ब्राह्मण की पत्नी को गर्भ ठहरा और 9 महीने पूरे होते ही उसने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। अपने बालक का नाम दोनों ने मिलकर देवीदास रखा।”
“समय के साथ बालक बड़ा होता गया। देवी की कृपा से वह तेज़ बुद्धि वाला और सुशील हो गया। माँ दुर्गा के कहे अनुसार, उसके माता-पिता ने 32 पूर्णमासी का व्रत करना शुरू कर दिया, ताकि उनके बेटे की आयु लंबी हो।”
“व्रत पूरे होने से पहले ही ब्राह्मण और उसकी पत्नी को देवीदास की उम्र 16 वर्ष होने की चिंता सताने लगी। उनके मन में हुआ कि कहीं उसे कुछ हो न जाए। हम यह बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे।”
“इसी सोच के साथ ब्राह्मण की पत्नी ने अपने भाई को बुलावा भेजा। उसके आते ही उसने कहा कि हम चाहते हैं कि तुम अपने भांजे देवीदास को विद्याध्ययन के लिए काशी लेकर जाओ। वहाँ एक साल पढ़ाई करवाकर उसे वापस सकुशल ले आना। बस उसे अकेला नहीं छोड़ना है, इसलिए हम चाहते हैं कि तुम उसके साथ जाओ।”
“देवीदास के मामा ने उनकी बात मान ली। वह देवीदास को एक सुंदर से घोड़े पर बैठाकर अपने साथ काशी लेकर जाने लगे।”
“इधर, ब्राह्मण और उनकी पत्नी के 32 पूर्णमासी के व्रत पूरे हो गए। उधर, काशी जाते समय एक दिन दोनों मामा-भांजे किसी गाँव में ठहरे। उस गाँव में एक लड़की का विवाह होना था, लेकिन तभी उसके होने वाले वर को लकवा हो गया।”
“मंडप सज चुका था, इसलिए वर के पिता चिंतित थे, तभी उन्होंने देवीदास को देखा। उनके मन में हुआ कि विवाह से जुड़ी सारी विधि मैं इस लड़के के साथ करा देता हूँ। उसके बाद विवाह संबंधी दूसरे कार्य मेरे बेटे के साथ हो जाएंगे। यही बात उस वर के पिता ने देवीदास के मामा से कही। देवीदास के मामा ने कहा कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है। बस मेरी इच्छा है कि विवाह में मिलने वाले सारे उपहार हम लोगों को ही मिले। वर का पिता इस बात को मान गया।”
“इतनी सब बातचीत के बाद वह अपने भान्जे को वर बनाकर मंडप में ले गया। विवाह रात के समय पूरे विधि-विधान से संपन्न हो गया। तभी देवीदास के मन में व्यथा हुई कि ना जाने यह महिला कौन है। इसके भाग्य में क्या लिखा है। इस बात को सोचते हुए देवीदास की आँखों से आँसू बहने लगे।”
“वधू ने जब यह देखा, तो पूछा कि आप इतने परेशान क्यों हैं?”
“देवीदास ने मामा द्वारा उसे दुल्हा बनाने और असली वर के पिता से हुई सारी बातें उसे बता दी।”
“यह सुनते ही उस महिला ने कहा कि मेरा विवाह आपके साथ हुआ है। मैंने अग्नि के समक्ष आपको अपना पति धारण किया है। अब मेरे पति सिर्फ आप ही हैं और आप ही रहेंगे। ऐसा नहीं हुआ, तो यह ब्रह्म विवाह के खिलाफ होगा।”
“उस युवती को समझाने के लिए देवीदास कहने लगा, “देखिए, मेरी उम्र अधिक नहीं है। आपकी गति मेरे बाद क्या होगी। आप इस ज़िद्द को छोड़ दीजिए।”
“उस महिला ने उत्तर दिया, “मेरी गति मेरे स्वामी से जुड़ी है। आपका जो होगा, वही मेरा होगा। आप उठकर भोजन कीजिए। आपको ज़रूर भूख लगी होगी।”
“खाने के बाद दोनों सो गए। सुबह होते ही देवीदास ने अपनी पत्नी को 3 नग वाली एक अँगूठी दी और एक रूमाल देते हुए कहा कि यह तुम्हें संकेत देगा। तुम्हें एक पुष्षवाटिका बनानी होगी, जिससे मेरे जीवन के बारे में जान सको। तुम वहाँ नवमल्लिका यानी चमेली के फूल लगा देना। उसे रोज़ाना पानी देना। इस दौरान तुम खुश रहना और फूलों को ध्यान से देखना। जब भी मेरे जीवन का अंत होगा, ये फूल सूखने लगेंगे। अगर मेरे प्राण लौट आए, तो यह दोबारा से पहले की तरह ताज़ा हो जाएंगे। इतना कहकर देवीदास वहाँ से चला गया।”
“सुबह लकवा मारे हुए वर को लेकर उसके पिता मण्डप में पहुँचे। जैसे ही युवती ने उसे देखा, तो अपने पिता से कहा कि यह मेरे पति नहीं हैं। इनके साथ मेरा विवाह नहीं हुआ है। यदि यह कहते हैं कि यह वहीं हैं, जिनसे मेरा विवाह हुआ है तो रात को हमारे बीच हुई बातें बताएं। मेरे द्वारा अपने पति को विवाह के रीति-रिवाज के समय दिए गए आभूषण दिखाएं। यह सारी बातें सुनकर लकवा मारा हुआ लड़का और उसके पिता व रिश्तेदार सिर झुकाते हुए वहाँ से चले गए।”
आगे भगवान कृष्ण ने कहा, “माते, इस तरह देवीदास काशी चला गया और इसी बीच उसका विवाह भी हो गया। कुछ समय के बाद रात को एक साँप उसे डसने के लिए आया। वह साँप काफ़ी ज़हरीला था, लेकिन माता-पिता के व्रत के प्रभाव के कारण वह देवीदास को काट नहीं पाया।”
“देवीदास को अपने साथ लेकर जाने के लिए अगले दिन स्वयं काल वहाँ पहुँचे। उन्होंने देवीदास के प्राण हरने की काफ़ी कोशिशें कीं। अंत में देवीदास बेहोश होकर ज़मीन पर गिर गया। किस्मत से उसी वक़्त पार्वती माँ और भोले शंकर भी वहाँ पर थे।”
“माँ पार्वती ने शिव जी से देवीदास को बचाने की बात कही। उन्होंने बताया कि इसकी माँ और पिता दोनों ने 32 पूर्णिमा व्रत पूरे कर लिए हैं, इसलिए इसे प्राण दान देने की कृपा करें। भोलेनाथ ने देवीदास की माता-पिता की भक्ति के चलते उस बालक को जीवन दान दे दिया।”
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, “माई इस व्रत के चलते काल को भी देवीदास के प्राण लौटाने पड़े और वह बेहोश बालक उठकर बैठ गया।”
“देवीदास की पत्नी ने जब पुष्पवाटिका में फूलों को सूखा हुआ पाया, तो दुखी हो गई। कुछ ही देर में जब फूल खिल उठे, तो वह दौड़ते हुए अपने पिता के पास गई। उन्हें सारी बातें बताकर कहा कि मेरे पति जीवित हैं। उनका काल टल गया है। अब आप मेरे पति को ढूंढकर निकालें।”
“एक साल की शिक्षा पूरी होने के बाद देवीदास अपने मामा के साथ ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर लौटने के लिए रवाना हो गया। देवीदास के ससुर अपने दामाद की तलाश में घर से निकलने ही वाले थे कि देवीदास और उसके मामा उनके घर पहुँच गए। युवती ने भी अपने पति को पहचान लिया और पिता को इशारा कर दिया।”
“कुछ दिन नगर में बिताने के बाद देवीदास ने अपनी धर्मपत्नी और मामा के साथ घर वापसी की इच्छा व्यक्त की। उसके ससुर ने ढेर सारे उपहार देकर उन तीनों को वहाँ से विदा किया।”
“देवीदास जैसे ही अपने नगर के समीप पहुँचा, तो लोगों ने देवीदास के लौटने की ख़बर उसके घर तक पहुँचा दी। उसके माता-पिता का ख़ुशी के मारे ठिकाना नहीं था। उसके बाद जब उन्हें पता चला कि देवीदास अपने साथ पत्नी भी लेकर आया है, तो उनकी ख़ुशी और भी बढ़ गई।”
“थोड़ी ही देर में देवीदास अपनी पत्नी और मामा के साथ घर पहुँच गया। 16वां साल पूरा करने के बाद घर पहुँचे देवीदास ने सबसे पहले अपनी माँ और पिता के चरणों पर सिर रखकर उन्हें आदर व प्रेमपूर्वक प्रणाम किया।”
“धनेश्वर ने अपने पुत्र और उसकी पत्नी के लिए एक उत्सव रखा। उसमें उन्होंने ब्राह्मणों को दिल खोलकर दान दिया।”
भगवान श्रीकृष्ण ने माता यशोदा से आगे कहा, “माँ इस तरह ब्राह्मण धनेश्वर और उसकी पत्नी पुत्रवान हो गए और उनके पुत्र की आयु भी बढ़ गई। यह व्रत करने से पुत्र रत्न की प्राप्ति भी होती है और महिलाएं अपने पति की आयु को बढ़ाकर विधवा होने के दुख से बच सकती हैं। इसमें किसी को किसी तरह का संदेह नहीं करना चाहिए। 32 पूर्णमासी व्रत को लेकर यह मेरा वचन है।”
इतना कहकर भगवान श्री कृष्ण ने अपनी वाणी को विराम दिया और माता यशोदा भी इस व्रत के बारे में जानकर प्रसन्न हो गईं।
कहानी से सीख - निरंतर प्रयास करके और भगवत भक्ति से मनुष्य मनचाहा फल प्राप्त कर सकता है।
