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नवरात्रि से जुड़ी पौराणिक कथा | Navratri Katha in Hindi

एक समय की बात है, स्वर्गलोक में महिषासुर नामक दैत्य का आतंक फैला हुआ था। वह खुद को अमर करना चाहता था। इसके लिए उसने ब्रह्मदेव की कठिन तपस्या की। उसकी तपस्या से खुश होकर ब्रह्म देवता ने उससे उसकी मनोकामना पूछी। इसपर दैत्य महिषासुर ने खुद के लिए अमर होने का वरदान मांगा।

तब ब्रह्मा जी ने कहा, "ये संभव नहीं है। इस संसार में हर किसी की मौत लिखी है। तुम कोई दूसरा वरदान मांग लो।" 

ब्रह्मा भगवान की बातें सुनकर दैत्य बोला, "कोई बात नहीं।" फिर आप मुझे यह आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मौत न किसी देवता, न किसी राक्षस और न किसी इंसान द्वारा हो। मेरी मौत किसी महिला के द्वारा हो।" ब्रह्मा जी ने उसे वरदान पूरा होने का आशीर्वाद दिया और वहां से चले गए।

इसके बाद दैत्य महिषासुर ने अपना आतंक फैलाना शुरू कर दिया। यह देख सभी देवता भगवान विष्णु, शिव और ब्रह्मा के पास पहुंचे और उस राक्षस का अंत करने की गुहार लगाई। इसके बाद तीनों देवता ने अपनी शक्ति से एक आदि शक्ति का निर्माण किया, जिसे दुर्गा का नाम दिया गया।

देवी दुर्गा जब महिषासुर से युद्ध करने गईं तो महिषासुर उन्हें देख मोहित हो गया। उसके मन में दुर्गा से विवाह करने की इच्छा हुई। 

उसने दुर्गा के सामने शादी का प्रस्ताव रखा। इस पर देवी ने कहा, "अगर तुम मुझसे युद्ध में जीत जाते हो तो मैं तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार कर लूंगी।" 

देवी की शर्त सुनकर महिषासुर युद्ध के लिए राजी हो गया। दोनों के बीच यह लड़ाई 9 दिनों तक चली और अगले दिन यानी दसवें दिन देवी दुर्गा ने उसे मार दिया। तभी से यह नवरात्रि का त्योहार मनाया जाने लगा।

लोहड़ी की कथा | Lohri ki Katha in Hindi

लोहड़ी की कथा का संबंध सुंदरी नामक लड़की और दुल्ला भट्टी योद्धा से जुड़ी है। प्रचलित लोहड़ी कथा इस प्रकार है - गंजीबार नामक क्षेत्र में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। उनकी एक बेटी थी, जिसका नाम सुंदरी था। उसका रूप भी उसके नाम जैसा ही सुंदर था। उसकी सुंदरता की हर कोई मिसाल देता था। 


उस ब्राह्मण की बेटी की सुंदरता की चर्चा एक दिन गंजीबार के शासक के पास बैठे कुछ लोगों ने कर दी। उस राजा के मन में हुआ कि इतनी सुंदर लड़की कहीं है, तो उसे मेरे राजमहल में होना चाहिए। उसकी मौजूदगी से मेरे हरम (महिलाओं के रहने की जगह) में चार चाँद लग जाएंगे। 


उसी दिन गंजीबार के राजा ने मन-ही–मन ठान लिया कि वो उस ब्राह्मण की बेटी को अपने राजमहल ज़रूर लेकर आएगा। उसने सुंदरी के पिता को लोभ देना शुरू कर दिया। उसने ब्राह्मण को संदेशा भिजवाकर कहा, “आप अपनी बेटी को हमारे हरम में भेज दीजिए, उसके बदले हम आपके जीवन को खु़शहाल बना देंगे। आपको धन-दौलत किसी चीज़ की कमी नहीं होने देंगे।”


गंजीबार का राजा कुछ दिनों के अंतराल में ऐसी ही प्रलोभन वाली चिट्ठियाँ ब्राह्मण को भेजता रहता था। ब्राह्मण को अपनी बेटी से बड़ा प्रेम था। वो उसे हरम में नहीं भेजना चाहता था, इसलिए वो परेशान रहता था। उसने इस परिस्थिति से निपटने के बारे में बहुत सोचा, लेकिन कोई उपाय उसे सूझ नहीं रहा था।


एक दिन अचानक उसके दिमाग़ में दुल्ला भट्टी योद्धा का ख़्याल आया। वो एक डाकू था, लेकिन ग़रीबों की ख़ूब मदद करता था। इसी वजह से लोगों के मन में उसके लिए प्यार की कमी नहीं थी। वो शोषण करने वालों से रुपये-पैसे छीनकर ग़रीबों में लूटा देता था।


अपनी बेटी के दूर जाने के डर से वो ब्राह्मण दुल्ला भट्टी से मिलने के लिए जंगल गया। उसने राजा के द्वारा आ रही चिट्ठियों के बारे में उसे बताया और मदद की गुहार लगाई। 


दुल्ला भट्टी ने ध्यान से ब्राह्मण की बातें सुनने के बाद कहा, “आप चिंता ना करें। मैं खुद आपकी बेटी का विवाह किसी योग्य वर के साथ करवाऊँगा और उस राजा के भय से आपको मुक्त कर दूँगा।” 


इतना कहने के बाद उसने कुछ घंटों में ही एक योग्य ब्राह्मण लड़का ढूंढा और सुंदरी को अपनी बेटी मानकर उसी रात उसका विवाह करवा दिया। विवाह के दौरान कन्यादान भी दुल्ला भट्टी ने ही किया। दुल्ला भट्टी के पास बेटी को विदाई में देने के लिए कुछ नहीं था, तो उसने तिल और शक्कर देकर उसे विदा कर दिया। 


सुंदरी के विवाह की जानकारी जैसे ही गंजीबार के राजा तक पहुँची, तो वो गुस्से में जल उठा। उसने तुरंत दुल्ला भट्टी का अंत करने का आदेश अपने इलाके में जारी कर दिया। आदेश मिलते ही गंजीबार के चप्पे-चप्पे में सेना दुल्ला भट्टी को ढूंढने लगी। कुछ लोग दुल्ला भट्टी के ठिकाने भी गए, लेकिन उन्हें वहाँ से मुँह की खाकर वापस आना पड़ा। 


एक बड़ी टुकड़ी जब दुल्ला भट्टी के ठिकाने गई, तो उसको भी दुल्ला भट्टी और उसके मित्रों ने घूल चटा दी। बार-बार दुल्ला भट्टी से अपनी सेना को हारते हुए देखकर गंजीबार राजा के होश ठिकाने आ गए।


शाही सेना को बार-बार हार का स्वाद चखाने वाले दुल्ला भट्टी की बढ़ाई करते हुए लोगों ने भांगड़ा और गिद्दा किया। अलाव जलाए और ख़ुशियाँ मनाईं।

 

महिलाओं ने संगीत गाना शुरू किया, “सुंदर मुंदरिए हो, तेरा कौण विचारा हो, दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले धी ब्याही हो, सेर शक्कर पाई हो, कुड़ी दे मामे आए हो, मामे चूरी कुट्टी हो, जमींदारा लुट्टी हो, कुड़ी दा लाल दुपट्टा हो, दुल्ले धी ब्याही हो, दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ला भट्टी वाला हो।


कहा जाता है कि लोहड़ी के गीतों के माध्यम से आज भी सुंदरी और दुल्ला भट्टी को ख़ास तौर पर याद किया जाता है। मान्यता है कि दुल्ला भट्टी की जीत के जश्न के रूप में लोहड़ी मनाई जाती है।


कहानी से सीख - वीरों को हमेशा याद रखा जाता है। ग़रीबों और ज़रूरतमंदों का साथ देने वाला इंसान लोगों की नज़रों में मसीहा बन जाता है।


दुर्गा अष्टमी की कथा | Durga Ashtami ki katha in Hindi

दुर्गा अष्टमी के दिन माँ गौरी की पूजा होती है। इससे जुड़ी कथा कुछ इस प्रकार है। सती जी जब अपने पिता के यज्ञ में कूदकर भस्म हो गईं, तो सालों के बाद वह माँ पार्वती के रूप में अवतरित हुईं। उन्होंने शिव जी को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तप किया। यह तपस्या सैकड़ों वर्षों तक चली। उसके बाद कहीं जाकर भोलेनाथ उन्हें पति के रूप में प्राप्त हुए।

एक दिन हंसी-हंसी में भगवान शिव ने उनके रंग के ऊपर कुछ कह दिया। भगवान शिव के मुँह से अपने रंग के लिए ‘काली’ शब्द सुनकर माँ पार्वती को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने अपने रंग को साफ़ करने के लिए तपस्या करने का प्रण ले लिया। वो शिव जी को बिना बताए ही तप करने के लिए निकल गईं। तपस्या करते-करते उन्हें सालों बीत गए। 


इसी तपस्या के दौरान एक भूखा शेर अपनी भूख मिटाने के लिए शिकार ढूँढता हुआ इधर-उधर भटक रहा था। उसने दूर से ही माँ पार्वती को देखा और उन्हें खाने की मंशा से उनके पास पहुँच गया। वहाँ जाते ही उसका मन बदल गया। माँ पार्वती को अपना आहार बनाने के बजाय वह शेर वहीं बैठकर उनकी रक्षा करने लगा।


इधर, लंबे समय तक पार्वती जी को अपने आसपास नहीं पाकर भगवान शिव स्वयं उन्हें ढूंढने के लिए निकल पड़ते हैं। ढूंढते-ढूंढते जब वह पार्वती जी के पास पहुँचते हैं, तो देखते हैं कि उनका शरीर कुंदन की भांति चमक रहा है। तप के कारण शरीर से गर्म ऊर्जा निकल रही थी। उनके तप से प्रसन्न होकर उसी समय शिव जी ने माता पार्वती को महागौरी होने का वरदान दिया।


वरदान मिलने के बाद माँ पार्वती सीधे स्नान के लिए गंगा नदी चली जाती हैं। उन्होंने एक झलक शेर को देखा और सोचा कि इंसान को जीवित खाने वाला शेर यहाँ क्या कर रहा है। यह देखकर माता पार्वती आगे बढ़ गईं। उधर, माँ पार्वती तप पूरा करने के बाद गंगा में स्नान कर रहीं थीं और इधर, यह शेर उनकी प्रतीक्षा में बैठा हुआ था। 


माँ पार्वती का शरीर गंगा नदी से नहाकर निकलने के बाद और दमकने लगा। उनका रंग पहले के मुकाबले बहुत हल्का था और उनमें इतना तेज था कि कोई भी उन्हें देखकर आकर्षित हो जाता। नहाकर वापस आने के बाद उन्होंने देखा कि वह शेर अभी भी वहीं बैठा हुआ है। उसकी श्रद्धा और अपने प्रति प्रेम देखकर महागौरी ने उस शेर को अपना वाहन बना लिया।  

दुर्गा अष्टमी के दिन भक्तों द्वारा माँ गौरी का पाठ, पूजा, आरती, आदि करने से सुख-समृद्धि, सफ़लता, शांति, और उन्नति मिलती है। रोगों और पापों का नाश होता है। माँ गौरी को प्रसन्न करने के लिए सुबह नहा धोकर छह से बारह वर्ष की कन्याओं को भोजन कराना और दान देना चाहिए। तभी अष्टमी की पूजा को पूरा माना जाता है।


कहानी से सीख - पहली सीख यह मिलती है कि मज़ाक में कभी ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए, जिससे किसी को ठेस पहुँचे। दूसरी सीख यह है कि अगर कुछ करने की ठान लो, तो उसको हासिल करने से कोई नहीं रोक सकता।


चित्रगुप्त की कथा | Chitragupt ki Katha in Hindi

एक बार युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से कहा, “आपकी कृपा से मैंने धर्मशास्त्र सुने। अब आप मुझे बताने की कृपा करें कि यम द्वितीया करने का पुण्य क्या है? इससे क्या-क्या फल मिलते हैं?

भीष्म पितामह ने कहा, “तुमने बड़ा अच्छा प्रश्न किया है। मैं तुम्हें विस्तार से इसके बारे में बताऊँगा। यह यम द्वितीया कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली द्वितीया होती है।”


“कर्तिक माह और चैत्र पक्ष में किसकी पूजा होनी चाहिए? इस समय यम द्वितीया व्रत कैसे करना चाहिए?” युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा।


भीष्म पितामह ने कहा, “मैं तुम्हें पुराण से जुड़ी एक कथा सुनाता हूँ। इससे तुम्हारे यम द्वितीया से जुड़े सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँगे।“


कथा शुरू करने से पहले भीष्म पितामह बोले, “इस कथा को सुनने वाले लोगों के पाप नाश हो जाते हैं।”


उन्होंने कथा शुरू करते हुए कहा कि सतयुग में विष्णु भगवान हुए, जिनकी नाभि में मौजूद कमल से चार मुँह वाले ब्रह्म देव की उत्पत्ति हुई। 


नारायण भगवान ने ब्रह्माजी को पूरे जगत की रचना करने का आदेश दिया। तब ब्रह्माजी ने मुँह से ब्राह्मणों, भुजाओं से क्षत्रियों, जांघों से वैश्यों व पैरों से शूद्रों का निर्माण किया। उसके बाद देव, दानव, राक्षस, गंधर्व, साँप, नाग, आदि की रचना की। फिर उन्होंने पहले मनुष्य मनु को बनाया और फिर दक्ष प्रजापति का निर्माण किया। उसके बाद दक्ष प्रजापति को सृष्टि की रचना को आगे बढ़ाने का आदेश दिया।


दक्ष प्रजापति की 60 बेटी हुईं। उनमें से 10 का विवाह धर्मराज से, 13 का विवाह कश्यप ऋषि से और 27 का विवाह चँद्रमा से हुआ। 


कश्यप ऋषि से देव वंश, दानव, राक्षस, गंधर्व, पिशाच, गौ और पक्षियों की जातियाँ उत्पन्न हुईं। इसी तरह अन्य वंश भी उत्पन्न होते गए।


ब्रह्माजी ने धर्मराज को धर्म प्रधान मानकर उन्हें सभी लोकों का अधिकार दे दिया। ब्रह्माजी ने उनसे कहा, “धर्मराज, तुम्हें हर समय सतर्क रहकर जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों को देखते हुए उन्हें वेद-शास्त्रों के अनुसार कर्म फल देना होगा।”


यह सुनकर धर्मराज ने कहा, “मैं सबको उनके कर्मों के अनुसार न्यायपूर्वक तरीके से कर्म फल दूँगा। इस महान काम को करने के साथ ही मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं आपकी आज्ञा का सदैव पालन करूँगा।”


समय बीतता गया और सृष्टि का बहुत विस्तार हो गया। फिर धर्मराज ने ब्रह्माजी से पूछा, “दुनिया में जीव अनंत हैं। उन्होंने अपने कुछ कर्म भोग लिए हैं और कुछ शेष बचे हैं। उनके कर्म की प्रेरणा वो स्वयं थे या कोई और, ऐसे कई गौण चीजें और कर्मचक्र हैं, इनका भार अकेले मैं कैसे उठा पाऊँगा?” 


“इस कार्य को करने के लिए आप मुझे शास्त्र, धर्म और न्याय के ज्ञाता, बुद्धिमान, तपस्वी सहायक दे दीजिए।” 


यह प्रार्थना सुनते ही ब्रह्माजी ध्यानमग्न हो गए। एक हज़ार साल तक तपस्या करने के बाद उनकी समाधि पूरी हुई। तभी उनके सामने एक श्याम रंग वाला महाचतुर व्यक्ति खड़ा था। 


ब्रह्म देव ने पूछा, “तुम कौन हो?” 


उस व्यक्ति ने ब्रह्म देव से कहा, “मेरे माता-पिता कौन हैं, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन मेरी उत्पत्ति आपके शरीर से ही हुई है। आप मेरा नामकरण करके बताइए कि मुझे क्या करना है?”


ब्रह्म देव बोले, “तू मेरी काया से उत्पन्न हुआ है, इसलिए तू कायस्थ चित्रगुप्त कहलाएगा। तुम्हारा निवास पृथ्वी लोक में अवन्तिपुरी में होगा। तुम्हारे द्वारा किए गए विद्याध्ययन से तुम्हें ख्याति मिलेगी। तुम शुभ-अशुभ कर्म का लेखा-जोखा बनाने रखने में धर्मराज की मदद करोगे।”


चित्रगुप्त को इतना कहने के बाद ब्रह्म देव ने धर्मराज को बताया, “चित्रगुप्त लेखक, संसार के सारे कर्म लिखने का काम करेंगे।” यह कहकर ब्रह्म देव वहाँ से ओझल हो गए।


पिता से सबकुछ जानने के बाद चित्रगुप्त सीधे कोटि नगरी जाकर ज्वालामुखी काली माँ की पूजा में लग गए। उन्होंने व्रत रखकर माँ की पूजा की। माँ के जप-मंत्र का उच्चारण किया। 


उपासना के दौरान चित्रगुप्त ने कहा, “देवी माँ को मेरा नमस्कार। आपके भगवती रूप को प्रणाम, सबको रौशनी देने वाली माँ को प्रणाम, मनचाहा वर देने वाली माँ को प्रणाम। गुणों के प्रभाव से रहित, देवी-देवताओं की उत्पत्ति करने वाली, लोगों को गुण प्रदान करने वाली, तीन आँखों वाली चण्डिका आपको प्रणाम। आपने जैसे इन्द्र व अन्य देवों को वरदान दिया है, वैसे ही मुझे भी आशीर्वाद के रूप में सभी लोकों के अधिकार का वरदान दीजिए।”


चित्रगुप्त की उपासना सुनकर देवी माँ ने कहा, “चित्रगुप्त मैं तुम्हारे द्वारा की गई अपनी स्तुति से प्रसन्न हूँ। आज मैं तुम्हें वरदान देती हूँ कि तुम्हारी आयु असंख्य होगी। तुम परोपकारी, अपने अधिकार को लेकर स्थिर रहोगे।”


इतना कहकर देवी माँ अंतर्ध्यान हो गईं। आशीर्वाद मिलने के बाद चित्रगुप्त वहाँ से धर्मराज के पास पहुँचे। उन्होंने वहाँ आराधना करने के लिए अपना आसन लगाया और पुण्यात्मक कर्म करना शुरू कर दिया।


उस समय एक बड़े ऋषि सुशर्मा ने पुत्रप्राप्ति के लिए एक यज्ञ किया। यज्ञ के बाद उन्हें संतान तो हुई, लेकिन पुत्र के बजाय उनके घर पुत्री पैदा हुई। उन्होंने उस यज्ञ को अपूर्ण घोषित किया और दूसरा यज्ञ करने का फैसला लिया। उन्होंने अपनी बेटी को लालन-पालन के लिए अन्य ऋषि-मुनि के पास छोड़ दिया।


उस कन्या का नाम इरावती था, वह बड़ी सुंदर और तेजस्वी थी। जब वह बड़ी हुई, तो ब्रह्माजी ने अपने मानस पुत्र चित्रगुप्त का विवाह इरावती से करवाने का फैसला लिया। धरती में इरावती के पिता ऋषि सुशर्मा की आज्ञा से दोनों का विवाह हो गया। 


विवाह के दौरान ब्रह्म देव ने अपने मानस पुत्र चित्रगुप्त को आशीर्वाद देते हुए कहा, “तुम चिरंजीवी, ज्ञानी और देवताओं में से एक माने जाओगे। तुम्हें पूजने वाला भक्त अच्छी गति को प्राप्त होगा। तुम्हारा वंश एकदम तुम्हारी तरह शिक्षित, ज्ञानी, परोपकारी होगा। तुम अपने वैवाहिक जीवन के साथ छात्र धर्म का पालन करना और धर्म-अधर्म का फैसला न्यायपूर्वक करना।”


इरावती से चित्रगुप्त को आठ पुत्र हुए। उसके बाद चित्रगुप्त का विवाह मनु की बेटी दक्षिणा से भी हुआ। उनसे चित्रगुप्त को चार पुत्र हुए।


पहली पत्नी से हुए पुत्रों के नाम - चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु, अरुण और जितेन्द्रिय और दूसरी पत्नी से जन्मे पुत्रों के नाम - भानु, स्वभानु, विश्वभानु और बृजभानु रखे। इन सभी बारह बेटों से चित्रगुप्त का घर रौशन हो गया।


सभी भाइयों ने मिलकर स्वर्ग में अपने माता-पिता की खूब सेवा की। उसके बाद पिता की आज्ञा से मनुष्य जीवन का विस्तार करने के लिए सभी भाई धरती पर आ गए।


चारु, भानु और सुचारू धरती पर मथुरा गए। वहाँ वो राजा इक्ष्वाकु के राजमहल में अच्छे पद पर थे। चारु लेखक थे, भानु मंत्री थे और सुचारू गणक। भानु ने मथुरा में अपना घर बनाया, इसलिए उनके वंशज माथुर कहलाए। चारु के मगध के सूरध्वज में रहने के कारण वो सूरध्वज कहलाने लगे। सुचारू अम्बष्ट प्रदेश में रहे, इसलिए अमबष्ट कहलाए। इन्हें आदिशक्ति की उपासना का अधिकार मिला।


निःश्रेष्ठ राजा के राज्य में स्वभानु बने मंत्री, चित्रचारू बने लेखक और मतिमान बने गणक। स्वभानु एक नदी के पास वाले नगर में रहने लगे, इसलिए भट्टनागर कहलाए। चित्रचारु एक गौडवासी होने से गौड़ कहलाने लगे। मतिमान रहे सरयूपार निगम देश में। इसलिए, सरयू कहलाए। इन्हें जयंती महारानी की पूजा-अर्चना करने का अधिकार मिला।


राजा नभक के राज्य में विश्वभानु हुए मंत्री, हिमवान हुए लेखक, चित्र हुए गणक। विश्वभानु रहते थे सकाशपुरी में इसलिए सक्सेना कहलाए, हिमवान रहते थे कर्णाटक में इसलिए कर्ण कहलाए और चित्र रहते थे अहिस्थावान में, इसलिए अस्थाना कहलाए। इन्हें माँ शाकम्भरी देवी की पूजा-अर्चना करने का अधिकार मिला। 


बृजभानु रहे श्री नगर में इसलिए श्रीवास्तव कहलाए, अरुण रहे कलापनगर में इसलिए कुलश्रेष्ठ कहलाए और जितेन्द्रिय रहे बाल्मीकि नगर में इसलिए बाल्मीक संबोधित हुए। इन्हें माँ लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करने का अधिकार मिला। 


उस वक़्त पृथ्वीलोक पर सौदास नामक एक राजा हुआ। वह सौराष्ट्र नगर में राज करता था। जन्म से ही सौदास पापी था। जब वह राजा बन गया, तो उसका पाप कर्म भी बढ़ने लगा। वह दूसरी महिलाओं पर बुरी नज़र रखता और दूसरों की धन-संपत्ति को चुराता था। इन सबके अलावा वह महाअभिमानी भी था।


जन्म से लेकर राजपाठ संभालने तक उस राजा ने एक भी पुण्य धर्म का कार्य नहीं किया था। एक बार यम द्वितीया के दिन वह महापापी राजा अपने सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ वन में हिरण का शिकार करने के लिए चला गया। वहाँ उसने देखा कि एक ब्राह्मण बड़े ही विधिपूर्वक चित्रगुप्त और यमराज की पूजा कर रहा है। 


उसने ब्राह्मण से पूछा, “आप यह किसकी पूजा-अर्चना कर रहे हैं?”


ब्राह्मण देव ने बताया, “मैं यम द्वितीया व्रत करता हूँ। उसी के लिए यह पूजन कर रहा हूँ।” साथ ही उन्होंने यम द्वितीय व्रत व पूजा का महत्व भी राजा को बताया।


उसी दिन से वह राजा यम द्वितीया का व्रत करने लगा। कर्तिक महीने के शुक्ल पक्ष में आने वाली द्वितीया के दिन वह नियम से दीप आदि से चित्रगुप्त और धर्मराज का पूजन करता था। एक बार वह यम द्वितीया का व्रत करना भूल गया। राजा ने उसके बाद आने वाली यम द्वितीया का व्रत किया। होते-होते एक दिन राजा के प्राण चले गए।


मृत्यु के बाद यमदूतों ने उसे कसकर बांधा और यमराज के पास लेकर पहुँच गए। उसके बाद उसकी पिटाई करना शुरू कर दिया। यमराज ने ऐसा दृश्य देखकर चित्रगुप्त से पूछा, “इस राजा के कर्म कैसे थे?” 


चित्र गुप्त ने बता दिया कि वह कितना पापी था। साथ ही यम द्वितीया के विषय पर भी बात की। चित्रगुप्त बोले इसने यम द्वितीया के व्रत भी किए, लेकिन नियम से सिर्फ एक यम द्वितीया का व्रत पूरा हुआ। उस दिन इसने चंदन, फूल, दीप आदि से हमारी पूजा की और भोजन करने के नियम का भी पालन किया। यही कारण है कि यह नरक में नहीं गया।


यमराज ने कहा, “निश्चय ही यह घोर पापी व्यक्ति है, लेकिन यम द्वितीया के व्रत के प्रभाव से इसे अच्छी गति मिलेगी। इतना कहकर उस राजा को यातनाओं से मुक्त कर दिया।”


भीष्म पितामह से इतनी कथा सुनने के बाद युधिष्ठिर जी पूछने लगे, “इस व्रत का पूजन किस तरह करना चाहिए, यह समझाने की कृपा करें।”


भीष्म पितामह ने उत्तर दिया, “यम द्वितीया व्रत करने के लिए एक पवित्र स्थान पर धर्मराज व चित्रगुप्तजी की मूर्ति बनानी होगी। उसके बाद मूर्ति प्रतिष्ठित करने के बाद सोलह तरह की और पांच तरह की सामग्री से श्रद्धा व प्रेमपूर्वक विभिन्न पकवान बनाने होंगे। उसके बाद लड्डू, फूल, फल, पान, दीप और दक्षिणादि से धर्मराज और चित्रगुप्त का पूजन करना होगा।”


“पूजन के दौरान उन्हें बार-बार नमस्कार करना होगा। भक्त को कहना होगा, “हे धर्मराज आपको नमस्कार, हे चित्रगुप्त आपको नमस्कार। पुत्र दान दीजिए, धन दान दीजिए, सब मनोरथ पूर्ण कीजिए, आदि।” इस तरह श्री चित्रगुप्त और धर्मराज की पूजा करके विधिपूर्वक कलम और स्याही की पूजा करनी होगी। इसके लिए कपूर, चंदन, पान, अगर, फूल और दक्षिणादि सामग्री चाहिए होगी।”


इतना करने के बाद प्रेमपूर्वक उनकी कथा सुनें। अपनी बहन के घर खाना खाकर उसे धन और अन्य पदार्थ दक्षिणा के रूप में दें। इस तरह भक्ति में डूबते हुए और प्रेम पूर्वक यम द्वितीया का व्रत करने से पुत्र प्राप्ति होती है, मन में जो हो वो पूर्ण होता है और सारे पाप कर्मों का नाश हो जाता है। 



कहानी से सीख - उस जने का कई युगों तक सत्कार और आदर किया जाता है जो कड़ी तपस्या और कठोर परिश्रम से सिद्धि प्राप्त करता है।


विश्‍वकर्मा भगवान की कथा | Vishwakarma Katha in Hindi

प्राचीन काल की बात है। मुनि विश्वामित्र के आमंत्रण पर मुनि व संन्‍यासी एक सुनिश्चित जगह पर इकट्ठे हुए। सबके इकट्ठे होने पर एक सभा का आयोजन हुआ। उस सभा का संबोधन मुनि विश्वामित्र ने किया। संबोधन में मुनि ने दुष्ट राक्षसों द्वारा यज्ञ को नष्ट करने और यज्ञ करने वालों को जान से मारने के विषय पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि हमें जल्दी कोई उपाय ढूंढना होगा, जिससे कि हम पूजा-पाठ, ध्यान-जप जैसे पुण्यात्मक कार्य अच्छे से कर सकें।


मुनि विश्वामित्र की बातें सुनने के बाद मुनि वशिष्ठ ने कहा, “हम लोगों पर पहले भी इस तरह का संकट आया था। उस समय हमें ब्रह्माजी ने उचित मार्ग दिखाया था।" इस बात को सुनते ही मुनि विश्वामित्र व अन्य ऋषि मुनि कहने लगे कि अब हमें भी उनकी ही शरण में चले जाना चाहिए।


सभी की सहमति होने के बाद वहाँ उपस्थित सभी ऋषि-मुनि स्वर्गलोक की ओर चल पड़े। ब्रह्माजी के पास पहुँचते ही विनम्रता के साथ सभी ऋषि-मुनियों ने मिलकर राक्षसों के आंतक से जुड़ी घटनाएँ उन्हें सुनाईं और मदद की गुहार लगाने लगे।


ब्रह्माजी ने ऋषि-मुनियों की बात सुनकर कहा, “इन राक्षसों ने स्वर्ग के देवताओं को भी भयभीत कर रखा है। देवताओं को डराने वाले राक्षस मनुष्यों को कैसे छोड़ देंगे? इनकी प्रवृत्ति ही ऐसी है। हाँ, आप लोगों को इस कष्ट से बचाने में श्री विश्वकर्मा ही आपकी मदद करेंगे। वो हमेशा राक्षसों के संहार के पक्ष में रहते हैं।”


“इस वक़्त धरती पर अग्नि देव के बेटे मुनि अगिंरा श्रेष्ठ पुरोहितों में से एक हैं और श्री विश्वकर्मा के भक्त भी। आप उनके पास जाएँ। वह आपको कोई-न-कोई ऐसा उपाय ज़रूर बताएंगे, जिससे आपके कष्ट दूर हो जाएँगे।”


ब्रह्माजी की बात सुनकर उन्हें प्रणाम करते हुए सभी ऋषि-मुनि वहाँ से अगिंरा मुनि के पास पहुँचे। वहाँ अगिंरा मुनि को भी ऋषि-महात्माओं ने राक्षसों की दुष्टता का सारा किस्सा सुनाया। मुनि ने तुरंत कहा कि इसमें श्री विश्वकर्मा जी ही मदद कर सकते हैं। 


इस पर ऋषि-मुनियों ने पूछा, “आखिर हमें क्या करना होगा। श्री विश्वकर्मा कैसे प्रसन्न होते हैं? यह सब बताइए। उनके प्रसन्न होने के बाद ही हमारे दुख दूर होंगे।”


अगिंरा मुनि ने कहा, “आप लोगों को अपने दूसरे कर्मों को रोकते हुए अमावस्या के दिन मिलकर श्री विश्वकर्मा जी की कथा सुननी और उनकी पूजा-अर्चना करनी होगी। आपके दुखों को वो इस पूजा से प्रसन्न होते ही दूर कर देंगे।”


अगिंरा मुनि से राक्षसों के प्रकोप से मुक्ति पाने का मार्ग सुनकर सभी ऋषि-मुनि अपने आश्रम व कुटिया में पहुँच गए। जैसे ही अमावस्या का दिन आया, वैसे ही ऋषि-मुनियों ने मिलकर एक यज्ञ किया। उस दौरान श्री विश्वकर्मा की कथा सुनकर उनकी पूजा भी की गई।

बड़े प्रेमपूर्वक श्री विश्वकर्मा की कथा सुनने, उपासना करने व यज्ञ करने के कारण श्री विश्वकर्मा जी ने उनके दुखों को हरते हुए सभी राक्षसों को भस्म कर दिया।

अब ऋषि-मुनियों को किसी बात का डर नहीं था। वो निर्भय होकर अपने जप-तप-ध्यान और यज्ञ जैसे पुण्यात्मक कार्य करने के लिए स्वतंत्र हो गए।

इस कारण कहा जाता है कि श्री विश्वकर्मा की पूजा करने वालों के दुख दूर हो जाते हैं और उन्हें ऊँचा पद प्राप्त होता है।

कहानी से सीख - दृढ़ संकल्प और कड़ी आस्था से आप बड़ी से बड़ी बाधा को पार कर सकते हैं।


गंगा अवतरण कथा | Ganga Avtaran Katha in Hindi

इक्ष्वाकु वंश में बहुत से प्रतापी राजा हुए, जिनमें से एक सगर राजा भी थे। राजा को अपनी एक पत्नी केशनी से एक पुत्र और दूसरी पत्नी सुमति से 60 हज़ार बेटे थे। राजा अपनी प्रजा और परिवार सबका बहुत ख़्याल रखते थे। एक बार महान राजा सगर ने सोचा कि क्यों ना अश्वमेध यज्ञ किया जाए। इस सोच के साथ उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करने का प्रण ले लिया।


यज्ञ जैसे ही शुरू हुआ, देवराज इन्द्र ने यज्ञ को पूर्ण होने से रोकने के लिए राजा सगर द्वारा छोड़े हुए घोड़े चुरा लिए। उन्होंने घोड़े चुराकर कपिल मुनि की कुटिया में बाँध दिए। राजा ने इस बात का पता चलते ही सुमति से जन्मे सभी 60 हज़ार बेटों को घोड़े ढूंढने के कार्य में लगा दिया। घोड़े की खोज में उनके सभी बेटे कपिल मुनि की कुटिया में पहुँच गए। वहाँ घोड़ों को देखकर मुनि को राजा सगर के बेटों ने चोर, जैसे अपशब्दों का इस्तेमाल किया।


उस वक़्त कपिल मुनि समाधि में लीन थे, लेकिन राजा सगर के बेटों के अपशब्द सुनकर उनका ध्यान टूट गया। जैसे ही कपिल मुनि की आँखें खुलीं, तो उनके क्रोध की अग्नि में राजा सगर के सारे बेटे जलकर राख हो गए। 


बहुत समय बीतने के बाद भी जब राजा सगर के बेटे नहीं लौटे, तो केशनी से हुए पुत्र अंशुमान को राजा सगर ने भाइयों की तलाश में भेजा। अंशुमान भी कुछ देर में कपिल मुनि की कुटिया में पहुँच गया। वहाँ अंशुमान की भेंट गरुड़ से हुई। गरुड़ जी ने अंशुमान को उनके भाइयों के राख होने की पूरी घटना बताई।


अंशुमान ने परेशान होकर गरुड़ जी से पूछा, “इन्हें मुक्ति दिलाने का कोई उपाय है?”


गरुड़जी ने बताया, “आपको इसके लिए गंगा माँ को स्वर्ग से धरती लाना होगा, तभी आपके भाइयों की आत्मा को मुक्ति मिल पाएगी। लेकिन, सबसे पहले तुम यज्ञ पूरा करवाओ। उसके बाद धरती में गंगा जी लेकर आना। गंगा माँ ही तुम्हारे भाइयों की आत्मा को शांति व मुक्ति देंगीं।”


अंशुमान उनकी बात मानकर घोड़ों को खोलकर अपने पिता के पास लेकर चले गए और उन्हें पूरी घटना विस्तार से बता दी। इधर, राजा ने अपना यज्ञ पूर्ण किया और अंशुमान ने भाइयों को मुक्ति दिलाने के लिए गंगा माँ की तपस्या शुरू कर दी। सालों साल धरती पर गंगा माँ को लाने के लिए तप करने के बाद भी वो सफ़ल नहीं हो पाए। 

अंशुमान, गंगा माँ का तप करते-करते मृत्यु को प्राप्त हो गए। उसके बाद अंशुमान के बेटे ने गंगा माँ को धरती पर लाने के लिए तप शुरू किया। दिलीप की तपस्या से भी गंगा माँ धरती नहीं आईं। उसके बाद दिलीप के बेटे भगीरथ ने तप शुरू किया। उन्होंने तीर्थ स्थल गोकर्ण जाकर ब्रह्म देव को ख़ुश करने के लिए कठोर तप किया। सालों के बाद ब्रह्मदेव जी भगीरथ के तप से प्रसन्न हो गए। उन्होंने गंगा माँ को पृथ्वी पर लेकर जाने का आशीर्वाद भगीरथ को दे दिया।

वरदान मिलने के बाद भी गंगा माँ धरती पर नहीं आ पाईं, क्योंकि ब्रह्म देव के कमंडल से निकलने के बाद गंगा जी के वेग को संभालने की क्षमता पृथ्वी के पास नहीं थी। ब्रह्म देव ने भगीरथ से कहा, “वत्स, तुम अब भगवान भोले नाथ से देवी गंगा का वेग संभालने की प्रार्थना करो। एक वही हैं, जो इसे संभालने की शक्ति रखते हैं।”

भगीरथ ने भगवान भोले शंकर को प्रसन्न करने के लिए एक अँगूठे के सहारे खड़े होकर तपस्या शुरू की। इस कठोर तप से भगवान शिव ख़ुश हो गए और देवी गंगा के वेग को संभालने का वचन दिया।

भगवान शिव जी से वचन मिलते ही भगीरथ ने ब्रह्म देव से गंगा माँ को कमंडल से छोड़ने का आग्रह किया। ब्रह्म जी ने ऐसा ही किया। जैसे ही ब्रह्म देव के कमंडल से देवी गंगा धरती पर जाने के लिए निकलीं, तो शंकर भगवान ने उनके वेग को संभलाने के लिए जटाएं फैलाकर गंगा माँ को अपनी जटाओं में समेट लिया और जटाएं पहले की तरह बांध लीं। सालों तक गंगा माँ इसी तरह भगवान शिव की जटाओं में सिमटी रहीं। 

जब भगीरथ ने देखा कि गंगा माँ धरती में अबतक नहीं पहुँची हैं, तो उन्होंने शंकर भगवान से गंगा माँ को जटाओं से मुक्त करने का निवेदन किया। तब भगवान ने अपनी जटाओं को खोल दिया। उसी वक़्त गंगा माँ कल-कल करते हुए हिमालय क्षेत्र से मैदानी इलाके की ओर बढ़ीं। 

उसी रास्ते में एक बड़े तपस्वी ऋषि जून की कुटिया थी। कल-कल करते हुए बहती गंगा के कारण ऋषि जून के तप व ध्यान में बाधा उत्पन्न हो रही थी। उन्होंने गंगा नदी के शोर से परेशान होकर गुस्से में सारी गंगा नदी को ही पी लिया। 

भगीरथ को जब इस बारे में पता चला, तो उन्होंने ऋषि से विनम्र निवेदन करके गंगा माँ को छोड़ने के लिए कहा। भगीरथ की प्रार्थना से प्रसन्न होकर ऋषि ने गंगा माँ को जाँघ से बाहर निकाल दिया। 

बाहर निकलने के बाद गंगा माँ बहते-बहते कपिल मुनि की कुटिया में पहुँच गईं। वहाँ पहुँचकर उन्होंने सगर के भस्म हुए 60 हजार बेटों के अवशेषों का स्पर्श किया। भगीरथ की तपस्या और भक्ति देखकर ब्रह्म देव ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा, “अब से देवी गंगा भागीरथी के नाम से भी जानी जाएंगी।”


कहानी से सीख - इंसान कुछ करने की ठान ले और सब लोग उसे पूरा करने में जुट जाएं, तो वह कार्य कभी-न-कभी पूर्ण अवश्य होता है।


शीतला माता की कथा | Sheetla Mata Ki Katha in Hindi

सालों पहले किसी गाँव में एक ब्राह्मण का परिवार रहता था। उसके परिवार में पत्नी और दो नौजवान युवक थे, जिनकी शादी के बाद ब्राह्मण का परिवार पूरा हो गया था। दोनों बहुओं की गोद लंबे समय तक खाली रही, लेकिन भगवत कृपा से एक दिन दोनों की गोद भर गई। बच्चे के लालन-पालन में दोनों ही बहुएं व्यस्त रहती थीं। इसी दौरान शीतला सप्तमी व शीतला अष्टमी का पर्व आ गया। 


गाँव के कुछ लोग शीतला अष्टमी करते थे, तो कुछ शीतला सप्तमी। ब्राह्मण का परिवार हर साल पूरे नियम से शीतला सप्तमी किया करता था। इस पर्व के अनुसार, परिवार को ठंडा व बासी भोजन करना होता था। हर साल परिवार के लोग एक दिन पहले ही शीतला सप्तमी के लिए भोजन तैयार करके रख लेते थे।


इस बार दोनों बहुओं के मन में हुआ कि हमारा बच्चा अभी छोटा है, ऐसे में हमने ठंडा व बासी खाना खाया, तो हमारी सेहत पर ख़राब असर पड़ेगा। अगर हमारी सेहत बिगड़ गई, तो फिर बच्चे का ध्यान कौन रखेगा? इसी सोच के साथ उन्होंने बासी व ठंडा भोजन करने की जगह पशु के लिए आहार तैयार करने वाले बर्तन में गर्मा-गर्म बाटी और चुरमा तैयार कर लिया।


इतना करने के बाद सास-बहु सबने मिलकर शीतला माँ की पूजा की, उनकी कथा सुनी और अंत में शीतला माँ के भजन गाए। थोड़ी देर में ब्राह्मणी की दोनों बहुएं अपने बच्चों के रोने का बहाना करके वहाँ से निकल गईं। 


उन्होंने जल्दी से तैयार की गई बाटी-चुरमा खाई और सासु माँ के पास चली गईं। सास ने भोजन खत्म करके शीतला माँ की आरती की। दोनों बहुओं ने भी साथ में आरती करके माँ का आशीर्वाद लिया।


पूजा-पाठ ख़त्म होने के बाद जब उनकी सास ने ठंडा व बासी खाना खाने के लिए कहा, तो बहुओं ने बहाना बना दिया। उसके बाद थोड़ी देर में बासी खाना खाने का दिखावा किया। सास ने काम में लगी बहुओं से कहा कि अपने बच्चों को भी भोजन करा दो, वो भूखे होंगे। जैसे ही वे दोनों अपने बच्चों के पास गईं, तो उन्हें मृत पाया।


बच्चों को मृत देखकर दोनों का दिल बैठ गया। वे ज़ोर-ज़ोर से रोने लगीं। इतने में उनकी सासु माँ वहाँ पहुँचीं और पूछा कि यह सब कैसे हुआ? विवशता के चलते दोनों बहुओं ने अपनी करनी सास को बता कि कैसे उन्होंने ताज़ा खाना बनाकर खाया था।


ब्राह्मणी ने उन्हें कहा कि तुम दोनों की गलत करतूत के चलते शीतला माता का प्रकोप तुम्हारे बच्चों को सहना पड़ा। संतान के मोह में तुम दोनों ने शीतला देवी के नियम को ताक पर रख दिया। तुम्हारे जैसा पापी कोई नहीं है। तुम दोनों इस घर से अभी निकल जाओ। यहाँ वापस आना है, तो मेरे दोनों पोतों को जीवित लेकर ही आना। इतना कहकर उन्होंने अपनी दोनों बहुओं को घर से बाहर निकालकर घर का दरवाज़ा बंद कर दिया।


बेबस देवरानी-जेठानी अपनी करनी पर पछताते हुए अपने-अपने बच्चों के शव को टोकरी में डालकर आगे बढ़ने लगीं। कुछ दूर चलने के बाद ब्राह्मणी की दोनों बहुएं थक गईं। उन्होंने पास में एक पेड़ देखा, तो वहाँ विराम करने की सोची। वहाँ पहले से ही दो युवतियां बैठी हुईं थीं। एक का नाम था शीतला और दूसरी का ओरी। दोनों ही अपने सिर पर जूंऐं पड़ने से परेशान थीं। दोनों कभी अपना सिर खुजातीं, तो कभी एक-दूसरे का।


यह देखकर ब्राह्मणी की दोनों बहुओं ने सोचा कि क्यों न आराम करते-करते इनकी जूंऐं भी निकाल दें। इससे उन्हें राहत मिलेगी। उन्होंने जाकर दोनों के सिर की जूंऐं निकाल दीं। उन्हें जैसे ही सिर की खुजली से आराम मिला, तो ओरी ने उन्हें पुत्र सुख का आशीर्वाद दिया।


उन बहुओं ने कहा, “पुत्र सुख तो हमें मिल चुका था, लेकिन आज ही उस सुख से हम वंचित हो गए हैं। शीतला माता के दर्शन के लिए दर-दर भटक रहे हैं, क्योंकि उनके प्रकोप से ही ऐसा हुआ है। तभी ओरी की बहन शीतला बोली, “तुम दोनों पापिन हो। तुम्हारा मुँह तक देखने के योग्य नहीं है। तुमने पुत्र मोह में दुष्टता की है। ठंडा भोजन करने की जगह गर्म खाना खा लिया।” 


देवरानी-जेठानी को तुरंत समझ आ गया कि यह शीतला ही देवी शीतला हैं। दोनों उनके चरणों में गिर पड़ीं। उन्होंने कहा कि हमें नहीं पता था कि गर्म खाना खाने से ऐसा हो जाएगा। हमें अपनी करनी पर बहुत अफ़सोस है। आगे से हम ऐसा कभी नहीं करेंगे। हर साल चैत्र महीने में शीतला सप्तमी के दिन ठंडा खाना ही खाएंगे। 


उनकी विनती सुनकर शीतला माता ने उन्हें माफ़ कर दिया और दोनों बच्चों को जीवित कर दिया। फिर उन्होंने विस्तार से वह कहानी सुनाई कि क्यों शीतला सप्तमी या शीतला अष्टमी के दिन ठंडा व बासी खाना खाया जाता है।


शीतला माता से उनकी कथा सुनकर दोनों देवरानी-जेठानी उनकी भक्ति में भाव-विभोर हो गईं। उन्होंने तभी प्रण ले लिया कि वो अपने गाँव वापस लौटकर शीतला माता का एक मंदिर बनवाएँगी और सभी को शीतला माता की कहानी भी सुनाएँगी।


शीतला माता और उनकी बहन को प्रणाम करके दोनों देवरानी-जेठानी अपने घर पहुँचीं। उनकी सास अपने पोतों को जीवित देखकर बहुत ख़ुश हुई। गाँव में सबको पता चल गया कि इन्हें शीतला देवी माँ के दर्शन हुए हैं। सभी ने उनका ख़ूब सत्कार किया। 


दोनों देवरानी-जेठानी ने गाँव में शीतला देवी के मंदिर का निर्माण करवाने का प्रण गाँव वालों को बताया और उन्हें बताया कि आखिर क्यों शीतला सप्तमी और जो लोग शीतला अष्टमी मनाते हैं, उन्हें ठंडा व बासी भोजन करना चाहिए।


कथा शुरू करते हुए उन्होंने बताया कि बहुत वर्ष पहले चैत्र के महीने में होली के सातवें दिन शीतला माता धरती में भ्रमण कर रही थीं। 


उसी समय शीतला माता को डुंगरी गाँव के कुछ लोगों ने पहचान कर गर्म-गर्म भोग लगाया। किसी ने गर्म हलवा, तो किसी ने गर्म खीर, किसी ने गर्म चने, तो किसी ने गर्म छोले, किसी ने गर्म रोटियाँ, तो किसी ने गर्म पूरियाँ। 


इतना गर्म खाना खाकर शीतला माँ का मुँह जल गया। तब वह कुछ ठंडा खाने के लिए आगे की ओर चल पड़ीं। तभी किसी ने गलती से शीतला माता के ऊपर गर्म पानी डाल दिया। इससे उनका पूरा शरीर गर्मी से तपने व जलने लगा। शरीर में फफोले उठ गए।


वो दौड़ती हुईं पास की कुम्हारन के पास गईं। उन्होंने कहा, “मुझे ठंडी-ठंडी मिट्टी में लेटना है। मेरा पूरा शरीर गर्मी से जल रहा है। ठंडी मिट्टी में कुछ देर लोटने के बाद उनकी जलन कुछ कम हुई लेकिन ख़त्म नहीं, तो कुम्हारन ने उन्हें ठंडा पानी दिया, जिसे उन्होंने अपने शरीर में डाल लिया। 


शरीर को ठंडक मिलने के बाद उन्होंने कुम्हारन से कहा कि मुझे कुछ खाने के लिए दो। मेरा मुँह भी जल रहा है। वो जल्दी से रात की बनाई हुई ठंडी रबड़ी और दही लेकर आई। उसे खाकर माँ को बहुत राहत मिली।


तब उस कुम्हारन ने कहा, “आपके बाल भी बिखरे हुए हैं। मैं उन्हें संभाल देती हूँ। तभी उसे अचानक शीतला माँ की तीसरी आँख नज़र आई। वो डर गई। माँ ने कहा कि तुम डरो नहीं। मैं शीतला देवी हूँ। धरती पर यूँ ही आ गई थी, तो मेरे गर्म खाने और गर्म पानी की वजह से यह सब हो गया।”


इतना होते ही शीतला देवी अपने असली रूप में आ गईं। उन्हें देखकर कुम्हारन ने प्रणाम किया और पूछा, हे चारभुजा वाली माँ, मैं आपको कहाँ बैठाऊँ? मेरा पूरा घर दरिद्रता से भरा हुआ है।” 


तभी माता ने एक हाथ में झाड़ू लेकर उसके पूरे घर की दरिद्रता को दूर कर दिया और उस कुम्हारन को मनोवांछित फल माँगने के लिए कहा।


कुम्हारन ने कहा कि आप हमेशा के लिए इसी जगह पर विराजमान हो जाएंँ, यही मेरी इच्छा है। डुंगरी गाँव में विराजमान होने का आशीर्वाद देने के बाद माँ ने कहा कि आप ही मेरी सच्ची भक्त हो। आपने मुझे शीतलता प्रदान की। अब सिर्फ़ आपकी झोंपड़ी जलने से बचेगी और बाकि पूरे गाँव की झोंपड़ियाँ नष्ट हो जाएँगी।


देखते-ही-देखते ऐसा ही हुआ। सारे गाँव के लोग आश्चर्यचकित हो गए कि एक झोंपड़ी को छोड़कर बाकि झोंपड़ियाँ और घर कैसे धू-धू कर जल रहे हैं। सब उस कुम्हारन के पास आए। उसने सबको विस्तार पूर्वक शीतला माता से जुड़ा सारा किस्सा बताया। तभी से वहाँ के लोगों ने शीतला माता की पूजा-अर्चना शुरू कर दी और प्रण लिया कि शीतला सप्तमी व शीतला अष्टमी के दिन बासी और ठंडा खाना ही खाएँगे। इस तरह उस डुंगरी गाँव में शीतला माता का मंदिर भी बना और नियम से उनकी पूजा भी होने लगी। प्रसन्न होकर शीतला माता ने पूरे गाँव के लोगों की दरिद्रता को दूर कर दिया।


इतना कहकर दोनों देवरानी-जेठानी ने शीतला माता की कथा को विराम दिया। बता दें कि आज भी डुंगरी में शील की डुंगरी नाम का शीतला माता का मंदिर काफ़ी लोकप्रिय है। यहाँ माँ का मेला लगता है और श्रद्धालु बढ़-चढ़कर माँ के दर्शन के लिए डुंगरी गाँव पहुँचते हैं।


कहानी से सीख - हर व्रत और पूजन के नियम के पीछे कोई-न-कोई बड़ा कारण होता है, इसलिए किसी नियम को दरकिनार नहीं करना चाहिए। वरना इसके परिणाम ख़तरनाक हो सकते हैं।


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