भीष्म पितामह ने कहा, “तुमने बड़ा अच्छा प्रश्न किया है। मैं तुम्हें विस्तार से इसके बारे में बताऊँगा। यह यम द्वितीया कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली द्वितीया होती है।”
“कर्तिक माह और चैत्र पक्ष में किसकी पूजा होनी चाहिए? इस समय यम द्वितीया व्रत कैसे करना चाहिए?” युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा।
भीष्म पितामह ने कहा, “मैं तुम्हें पुराण से जुड़ी एक कथा सुनाता हूँ। इससे तुम्हारे यम द्वितीया से जुड़े सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँगे।“
कथा शुरू करने से पहले भीष्म पितामह बोले, “इस कथा को सुनने वाले लोगों के पाप नाश हो जाते हैं।”
उन्होंने कथा शुरू करते हुए कहा कि सतयुग में विष्णु भगवान हुए, जिनकी नाभि में मौजूद कमल से चार मुँह वाले ब्रह्म देव की उत्पत्ति हुई।
नारायण भगवान ने ब्रह्माजी को पूरे जगत की रचना करने का आदेश दिया। तब ब्रह्माजी ने मुँह से ब्राह्मणों, भुजाओं से क्षत्रियों, जांघों से वैश्यों व पैरों से शूद्रों का निर्माण किया। उसके बाद देव, दानव, राक्षस, गंधर्व, साँप, नाग, आदि की रचना की। फिर उन्होंने पहले मनुष्य मनु को बनाया और फिर दक्ष प्रजापति का निर्माण किया। उसके बाद दक्ष प्रजापति को सृष्टि की रचना को आगे बढ़ाने का आदेश दिया।
दक्ष प्रजापति की 60 बेटी हुईं। उनमें से 10 का विवाह धर्मराज से, 13 का विवाह कश्यप ऋषि से और 27 का विवाह चँद्रमा से हुआ।
कश्यप ऋषि से देव वंश, दानव, राक्षस, गंधर्व, पिशाच, गौ और पक्षियों की जातियाँ उत्पन्न हुईं। इसी तरह अन्य वंश भी उत्पन्न होते गए।
ब्रह्माजी ने धर्मराज को धर्म प्रधान मानकर उन्हें सभी लोकों का अधिकार दे दिया। ब्रह्माजी ने उनसे कहा, “धर्मराज, तुम्हें हर समय सतर्क रहकर जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों को देखते हुए उन्हें वेद-शास्त्रों के अनुसार कर्म फल देना होगा।”
यह सुनकर धर्मराज ने कहा, “मैं सबको उनके कर्मों के अनुसार न्यायपूर्वक तरीके से कर्म फल दूँगा। इस महान काम को करने के साथ ही मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं आपकी आज्ञा का सदैव पालन करूँगा।”
समय बीतता गया और सृष्टि का बहुत विस्तार हो गया। फिर धर्मराज ने ब्रह्माजी से पूछा, “दुनिया में जीव अनंत हैं। उन्होंने अपने कुछ कर्म भोग लिए हैं और कुछ शेष बचे हैं। उनके कर्म की प्रेरणा वो स्वयं थे या कोई और, ऐसे कई गौण चीजें और कर्मचक्र हैं, इनका भार अकेले मैं कैसे उठा पाऊँगा?”
“इस कार्य को करने के लिए आप मुझे शास्त्र, धर्म और न्याय के ज्ञाता, बुद्धिमान, तपस्वी सहायक दे दीजिए।”
यह प्रार्थना सुनते ही ब्रह्माजी ध्यानमग्न हो गए। एक हज़ार साल तक तपस्या करने के बाद उनकी समाधि पूरी हुई। तभी उनके सामने एक श्याम रंग वाला महाचतुर व्यक्ति खड़ा था।
ब्रह्म देव ने पूछा, “तुम कौन हो?”
उस व्यक्ति ने ब्रह्म देव से कहा, “मेरे माता-पिता कौन हैं, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन मेरी उत्पत्ति आपके शरीर से ही हुई है। आप मेरा नामकरण करके बताइए कि मुझे क्या करना है?”
ब्रह्म देव बोले, “तू मेरी काया से उत्पन्न हुआ है, इसलिए तू कायस्थ चित्रगुप्त कहलाएगा। तुम्हारा निवास पृथ्वी लोक में अवन्तिपुरी में होगा। तुम्हारे द्वारा किए गए विद्याध्ययन से तुम्हें ख्याति मिलेगी। तुम शुभ-अशुभ कर्म का लेखा-जोखा बनाने रखने में धर्मराज की मदद करोगे।”
चित्रगुप्त को इतना कहने के बाद ब्रह्म देव ने धर्मराज को बताया, “चित्रगुप्त लेखक, संसार के सारे कर्म लिखने का काम करेंगे।” यह कहकर ब्रह्म देव वहाँ से ओझल हो गए।
पिता से सबकुछ जानने के बाद चित्रगुप्त सीधे कोटि नगरी जाकर ज्वालामुखी काली माँ की पूजा में लग गए। उन्होंने व्रत रखकर माँ की पूजा की। माँ के जप-मंत्र का उच्चारण किया।
उपासना के दौरान चित्रगुप्त ने कहा, “देवी माँ को मेरा नमस्कार। आपके भगवती रूप को प्रणाम, सबको रौशनी देने वाली माँ को प्रणाम, मनचाहा वर देने वाली माँ को प्रणाम। गुणों के प्रभाव से रहित, देवी-देवताओं की उत्पत्ति करने वाली, लोगों को गुण प्रदान करने वाली, तीन आँखों वाली चण्डिका आपको प्रणाम। आपने जैसे इन्द्र व अन्य देवों को वरदान दिया है, वैसे ही मुझे भी आशीर्वाद के रूप में सभी लोकों के अधिकार का वरदान दीजिए।”
चित्रगुप्त की उपासना सुनकर देवी माँ ने कहा, “चित्रगुप्त मैं तुम्हारे द्वारा की गई अपनी स्तुति से प्रसन्न हूँ। आज मैं तुम्हें वरदान देती हूँ कि तुम्हारी आयु असंख्य होगी। तुम परोपकारी, अपने अधिकार को लेकर स्थिर रहोगे।”
इतना कहकर देवी माँ अंतर्ध्यान हो गईं। आशीर्वाद मिलने के बाद चित्रगुप्त वहाँ से धर्मराज के पास पहुँचे। उन्होंने वहाँ आराधना करने के लिए अपना आसन लगाया और पुण्यात्मक कर्म करना शुरू कर दिया।
उस समय एक बड़े ऋषि सुशर्मा ने पुत्रप्राप्ति के लिए एक यज्ञ किया। यज्ञ के बाद उन्हें संतान तो हुई, लेकिन पुत्र के बजाय उनके घर पुत्री पैदा हुई। उन्होंने उस यज्ञ को अपूर्ण घोषित किया और दूसरा यज्ञ करने का फैसला लिया। उन्होंने अपनी बेटी को लालन-पालन के लिए अन्य ऋषि-मुनि के पास छोड़ दिया।
उस कन्या का नाम इरावती था, वह बड़ी सुंदर और तेजस्वी थी। जब वह बड़ी हुई, तो ब्रह्माजी ने अपने मानस पुत्र चित्रगुप्त का विवाह इरावती से करवाने का फैसला लिया। धरती में इरावती के पिता ऋषि सुशर्मा की आज्ञा से दोनों का विवाह हो गया।
विवाह के दौरान ब्रह्म देव ने अपने मानस पुत्र चित्रगुप्त को आशीर्वाद देते हुए कहा, “तुम चिरंजीवी, ज्ञानी और देवताओं में से एक माने जाओगे। तुम्हें पूजने वाला भक्त अच्छी गति को प्राप्त होगा। तुम्हारा वंश एकदम तुम्हारी तरह शिक्षित, ज्ञानी, परोपकारी होगा। तुम अपने वैवाहिक जीवन के साथ छात्र धर्म का पालन करना और धर्म-अधर्म का फैसला न्यायपूर्वक करना।”
इरावती से चित्रगुप्त को आठ पुत्र हुए। उसके बाद चित्रगुप्त का विवाह मनु की बेटी दक्षिणा से भी हुआ। उनसे चित्रगुप्त को चार पुत्र हुए।
पहली पत्नी से हुए पुत्रों के नाम - चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु, अरुण और जितेन्द्रिय और दूसरी पत्नी से जन्मे पुत्रों के नाम - भानु, स्वभानु, विश्वभानु और बृजभानु रखे। इन सभी बारह बेटों से चित्रगुप्त का घर रौशन हो गया।
सभी भाइयों ने मिलकर स्वर्ग में अपने माता-पिता की खूब सेवा की। उसके बाद पिता की आज्ञा से मनुष्य जीवन का विस्तार करने के लिए सभी भाई धरती पर आ गए।
चारु, भानु और सुचारू धरती पर मथुरा गए। वहाँ वो राजा इक्ष्वाकु के राजमहल में अच्छे पद पर थे। चारु लेखक थे, भानु मंत्री थे और सुचारू गणक। भानु ने मथुरा में अपना घर बनाया, इसलिए उनके वंशज माथुर कहलाए। चारु के मगध के सूरध्वज में रहने के कारण वो सूरध्वज कहलाने लगे। सुचारू अम्बष्ट प्रदेश में रहे, इसलिए अमबष्ट कहलाए। इन्हें आदिशक्ति की उपासना का अधिकार मिला।
निःश्रेष्ठ राजा के राज्य में स्वभानु बने मंत्री, चित्रचारू बने लेखक और मतिमान बने गणक। स्वभानु एक नदी के पास वाले नगर में रहने लगे, इसलिए भट्टनागर कहलाए। चित्रचारु एक गौडवासी होने से गौड़ कहलाने लगे। मतिमान रहे सरयूपार निगम देश में। इसलिए, सरयू कहलाए। इन्हें जयंती महारानी की पूजा-अर्चना करने का अधिकार मिला।
राजा नभक के राज्य में विश्वभानु हुए मंत्री, हिमवान हुए लेखक, चित्र हुए गणक। विश्वभानु रहते थे सकाशपुरी में इसलिए सक्सेना कहलाए, हिमवान रहते थे कर्णाटक में इसलिए कर्ण कहलाए और चित्र रहते थे अहिस्थावान में, इसलिए अस्थाना कहलाए। इन्हें माँ शाकम्भरी देवी की पूजा-अर्चना करने का अधिकार मिला।
बृजभानु रहे श्री नगर में इसलिए श्रीवास्तव कहलाए, अरुण रहे कलापनगर में इसलिए कुलश्रेष्ठ कहलाए और जितेन्द्रिय रहे बाल्मीकि नगर में इसलिए बाल्मीक संबोधित हुए। इन्हें माँ लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करने का अधिकार मिला।
उस वक़्त पृथ्वीलोक पर सौदास नामक एक राजा हुआ। वह सौराष्ट्र नगर में राज करता था। जन्म से ही सौदास पापी था। जब वह राजा बन गया, तो उसका पाप कर्म भी बढ़ने लगा। वह दूसरी महिलाओं पर बुरी नज़र रखता और दूसरों की धन-संपत्ति को चुराता था। इन सबके अलावा वह महाअभिमानी भी था।
जन्म से लेकर राजपाठ संभालने तक उस राजा ने एक भी पुण्य धर्म का कार्य नहीं किया था। एक बार यम द्वितीया के दिन वह महापापी राजा अपने सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ वन में हिरण का शिकार करने के लिए चला गया। वहाँ उसने देखा कि एक ब्राह्मण बड़े ही विधिपूर्वक चित्रगुप्त और यमराज की पूजा कर रहा है।
उसने ब्राह्मण से पूछा, “आप यह किसकी पूजा-अर्चना कर रहे हैं?”
ब्राह्मण देव ने बताया, “मैं यम द्वितीया व्रत करता हूँ। उसी के लिए यह पूजन कर रहा हूँ।” साथ ही उन्होंने यम द्वितीय व्रत व पूजा का महत्व भी राजा को बताया।
उसी दिन से वह राजा यम द्वितीया का व्रत करने लगा। कर्तिक महीने के शुक्ल पक्ष में आने वाली द्वितीया के दिन वह नियम से दीप आदि से चित्रगुप्त और धर्मराज का पूजन करता था। एक बार वह यम द्वितीया का व्रत करना भूल गया। राजा ने उसके बाद आने वाली यम द्वितीया का व्रत किया। होते-होते एक दिन राजा के प्राण चले गए।
मृत्यु के बाद यमदूतों ने उसे कसकर बांधा और यमराज के पास लेकर पहुँच गए। उसके बाद उसकी पिटाई करना शुरू कर दिया। यमराज ने ऐसा दृश्य देखकर चित्रगुप्त से पूछा, “इस राजा के कर्म कैसे थे?”
चित्र गुप्त ने बता दिया कि वह कितना पापी था। साथ ही यम द्वितीया के विषय पर भी बात की। चित्रगुप्त बोले इसने यम द्वितीया के व्रत भी किए, लेकिन नियम से सिर्फ एक यम द्वितीया का व्रत पूरा हुआ। उस दिन इसने चंदन, फूल, दीप आदि से हमारी पूजा की और भोजन करने के नियम का भी पालन किया। यही कारण है कि यह नरक में नहीं गया।
यमराज ने कहा, “निश्चय ही यह घोर पापी व्यक्ति है, लेकिन यम द्वितीया के व्रत के प्रभाव से इसे अच्छी गति मिलेगी। इतना कहकर उस राजा को यातनाओं से मुक्त कर दिया।”
भीष्म पितामह से इतनी कथा सुनने के बाद युधिष्ठिर जी पूछने लगे, “इस व्रत का पूजन किस तरह करना चाहिए, यह समझाने की कृपा करें।”
भीष्म पितामह ने उत्तर दिया, “यम द्वितीया व्रत करने के लिए एक पवित्र स्थान पर धर्मराज व चित्रगुप्तजी की मूर्ति बनानी होगी। उसके बाद मूर्ति प्रतिष्ठित करने के बाद सोलह तरह की और पांच तरह की सामग्री से श्रद्धा व प्रेमपूर्वक विभिन्न पकवान बनाने होंगे। उसके बाद लड्डू, फूल, फल, पान, दीप और दक्षिणादि से धर्मराज और चित्रगुप्त का पूजन करना होगा।”
“पूजन के दौरान उन्हें बार-बार नमस्कार करना होगा। भक्त को कहना होगा, “हे धर्मराज आपको नमस्कार, हे चित्रगुप्त आपको नमस्कार। पुत्र दान दीजिए, धन दान दीजिए, सब मनोरथ पूर्ण कीजिए, आदि।” इस तरह श्री चित्रगुप्त और धर्मराज की पूजा करके विधिपूर्वक कलम और स्याही की पूजा करनी होगी। इसके लिए कपूर, चंदन, पान, अगर, फूल और दक्षिणादि सामग्री चाहिए होगी।”
इतना करने के बाद प्रेमपूर्वक उनकी कथा सुनें। अपनी बहन के घर खाना खाकर उसे धन और अन्य पदार्थ दक्षिणा के रूप में दें। इस तरह भक्ति में डूबते हुए और प्रेम पूर्वक यम द्वितीया का व्रत करने से पुत्र प्राप्ति होती है, मन में जो हो वो पूर्ण होता है और सारे पाप कर्मों का नाश हो जाता है।
कहानी से सीख - उस जने का कई युगों तक सत्कार और आदर किया जाता है जो कड़ी तपस्या और कठोर परिश्रम से सिद्धि प्राप्त करता है।