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हल षष्ठी व्रत कथा | Hal Sashti Vrat Katha in Hindi

प्राचीन समय में गाय-भैंस को चराने व पालने वाली एक ग्वालिन आसपास के गाँवों में दूध बेचती थी। गर्भावस्था में भी वह लगातार दूध बेचती रही। 

कुछ समय बाद उसका प्रसव नजदीक आया। फिर भी वह दूध बेचने के लिए गाँव चली जाती थी। उसके मन में होता था कि मैं अभी नहीं गई, तो दूध खराब हो जाएगा।


एक दिन कुछ ही दूर चलते ही उसे तेज़ पीड़ा होने लगी। वो बेर की झाड़ी के किनारे रुक गई। वहां उसने एक बेटे को जन्म दिया। जन्म देने के बाद उसने अपनी बेटी को पास के खेत में कुछ घास में लपेटकर रख दिया। उसके बाद वो दूध बेचने के लिए निकल गई। 


गाँव जाकर उस ग्वालिन ने गाय और भैंस के मिले हुए दूध को भैंस का दूध बताकर बेच दिया। पूरे गांव के लोगों को दूध बेचने के बाद वह बच्चे के पास लौटने लगी।


उधर खेत के पास एक किसान हल जोत रहा था। तभी बैल मचलकर दौड़ने लगा और हल का नुकीला हिस्सा बच्चे के पेट पर लग गया। किसान घबरा गया। उसने तुरंत बच्चे के पेट को कांटों से सील दिया और वहां से चला गया।


तभी ग्वालिन उस खेत में पहुंची, जहां उसने अपने बच्चे को घास में लपेटकर रखा था। अपने बच्चे को खून में लतपत देखकर उसके मन में हुआ कि आज षष्ठी व्रत के दिन मैंने गाय-भैंस के मिले हुए दूध को सिर्फ गाय का शुद्ध दूध कहकर बेचा है। मुझे अपने इसी झूठ की सजा मिली है।


ग्वालिन अपने इस झूठ का प्रायश्चित करने के लिए दोबारा गाँव चली गई। उसने सभी को बताया, “मैंने गाय और भैंस के मिश्रित दूध को भैंस का दूध बताकर सबको धोखा दिया है और व्रत भंग किया है। मुझे आप लोग माफ कर दीजिए।


सच्चे मन से ग्वालिन को माफी मांगते देख गांव वालों ने उसे माफ कर दिया। माफी मिलने के बाद जब ग्वालिन खेत पहुँची, तो उसने देखा कि उसका बेटा सुरक्षित खेल रहा है। उसके शरीर के घाव भी सूख चुके हैं।


कहानी से सीख : झूठ और फरेब का फल इंसान को किसी-न-किसी दुख के रूप में जरूर मिलता है। 


संकष्टी चतुर्थी कथा और व्रत विधि | Sankashti Chaturthi Katha Aur Vrat Vidhi in Hindi

एक बार माता पार्वती ने गणेश जी से पूछा, “वैशाख मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली संकष्टी चतुर्थी के दिन कौन से गणेश की पूजा करनी चाहिए और किस विधि से पूजन किया जाना चाहिए? व्रत के बाद कैसा भोजन ग्रहण करना उचित माना जाता है? 

इन सभी सवालों का जवाब देते हुए गणेश जी बोले, “ जगत माता, वैशाख कृष्ण पक्ष चतुर्थी के दिन ‘व्रकतुंड’ गणेश जी की पूजा करनी चाहिए। खाने में कमलगट्टे से बना हलवा लेना अच्छा माना जाता है। माता, द्वापर युग में श्री कृष्ण से राजन युधिष्ठिर ने यही सवाल किया था। इसके जवाब में भगवान कृष्ण ने उन्हें विस्तार से व्रत के बारे में बताया था। मैं भी आपको सुनाता हूँ, जो श्री कृष्ण ने सुनाया था। आप इसे श्रद्धा के साथ सुनें।


श्री कृष्ण ने राजा युधिष्ठिर से कहा, “वैशाख कृष्ण पक्ष चतुर्थी कल्याणदायनी होती है। इस चतुर्थी का व्रत करने वाले को जो फल मिलता है मैं उस बारे में बता रहा हूँ। प्राचीन समय की बात है तब प्रतापी राजा रंतिदेव को शत्रुओं का विनाशक कहा जाता था। उनके मित्र इन्द्र, यम, कुबेर, आदि देव थे। 


राजा रंतिदेव के ही राज्य में एक ब्राह्मण रहता था। उसका नाम था धर्मकेतु। उसकी दो पत्नियाँ थीं, जिनमें से एक पत्नी का नाम सुशीला और दूसरी पत्नी का नाम चंचला था। 


सुशीला का मन पूजा-पाठ में बड़ा लगता था। वह आये दिन कोई व्रत ज़रूर करती थी। व्रत करते-करते उसका शरीर कमज़ोर होने लगा। चंचला का स्वभाव सुशीला के ठीक विपरित था। वो कभी भी पूजा-पाठ और व्रत नहीं करती थी। उसे हरदम भरपेट खाना चाहिए होता था। 


वक़्त का चक्र घूमा और सुशीला की गोद उसी के लक्षणों वाली एक बेटी से भर गई और चंचला को बेटा हुआ। कुछ समय के बाद चंचला ने सुशीला को ताने मारना शुरू कर दिया। वो हरदम कहती, “क्यों री, तूने तो अपना पूरा शरीर व्रत रख-रखकर बर्बाद कर दिया। फिर भी तुझे पुत्र रत्न नहीं मिला। मैंने कभी कोई व्रत, धर्म, पूजा, पाठ, आदि नहीं किया लेकिन मुझे भगवान ने एक स्वस्थ पुत्र दिया है। तेरे ऐसे पूजा पाठ का क्या लाभ जिससे एक पुत्र रत्न भी ना मिले।”


अपनी सौतन से रोज़ इस तरह के ताने सुनकर सुशीला का हृदय छल्नी होने लगा। सुशीला ने फिर भी कुछ नहीं कहा। वो चुपचाप गणेश जी की आराधना करती रहती। एक दिन सुशीला की भक्ति और साफ़ मन के कारण गणेशजी प्रसन्न हो गए।  


पूजा से प्रसन्न होते ही श्री गणेश जी एक रात सुशीला को दर्शन देने के लिए आ गए। उन्होंने सुशीला से कहा, “मैं तुम्हारी पूजा-अर्चना व साधना से खु़श हूँ। तुम्हें आशीर्वाद के रूप में यह वरदान देता हूँ कि तुम्हारी बेटी के मुँह से हमेशा मोती व मूंगे प्रवाहित होंगे। तुम्हें एक बेटा भी होगा। वो वेद और शास्त्र का ज्ञाता होगा। इतना कहकर गणेश जी सुशीला के स्वप्न से चले गए।”


उसी समय सुशीला की नींद खुल गई। वो मन-ही-मन सपने में गणेश जी के दर्शन और उनसे मिले वरदान के कारण बहुत खु़श थी। भगवान गणेश के वरदान के अनुसार ही उसकी बेटी के मुँह से मोती और मूंगे प्रवाहित होने लगे। यह देखकर उसकी सौतन आश्चर्यचकित हो गई। कुछ ही समय के बाद सुशीला को एक सुंदर बालक हुआ। 


सुशीला बेहद ख़ुश थी, लेकिन उसकी खु़शी ज़्यादा दिन नहीं टिकी। पुत्र के जन्म के कुछ वक़्त के बाद राजा रंतिदेव के प्राण चले गए। पति की मृत्यु के बाद चंचला, जितना संभव हो सका, उतना धन समेटकर दूसरे घर में रहने लगी। सुशीला अपने दोनों बच्चों का लालन-पालन अपने पति के घर में ही रहकर कर रही थी। 


पति के स्वर्गवास के बाद भी सुशीला के पास धन-संपत्ति और संतोष देखकर चंचला से रहा नहीं गया। वो एक दिन हाथ जोड़ते हुए सुशीला के पास गई। वहाँ पहुँचकर उसने कहा, “मैं पापिन हूँ, जो तुम्हें ताने मारती थी। तुम मेरे अपराधों को भूल समझकर माफ़ कर दो।” 


क्षमा याचना करने के बाद चंचला ने भी सुशीला की ही तरह भगवान गणेश का व्रत और पूजन चतुर्थी के दिन करना शुरू कर दिया। गणेश जी ने चंचला के भी संकट दूर किए, पापों का नाश किया और उसपर अपनी कृपा बनाई। इसी कारण से श्री गणेश को  पुण्यदायक, पापनाशक, संकटनाशक कहा जाता है।


इतनी बात कहने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा, “आप भी विधिपूर्वक यह व्रत करेंगे, तो शत्रुओं का विनाश होगा और आप लोगों की हमेशा जीत होती रहेगी। 


ध्यान देने की बात है कि चतुर्थी हर महीने में दो बार पड़ती है। एक शुक्ल पक्ष में जिसे विनायिकी चतुर्थी कहते हैं और दूसरी कृष्ण पक्ष वाली चतुर्थी जिसे संकष्टी चतुर्थी कहा जाता है। 


संकष्टी चतुर्थी व्रत करने की इच्छा रखने वालों को सबसे पहले नहाकर व्रत का संकल्प लेना होता है। फिर सारा दिन निराहार रहकर गणेश जी का ध्यान व जप करना होगा।


शाम होते ही दोबारा स्नान करके साफ़ कपड़े पहनकर श्री गणेश की पूजा करनी होती है। इसके लिए दीप, धूप, अक्षत, सिंदूर, चंदन की आवश्यकता होती है। पूजा करने के बाद चाँद को अर्घ्य दें। उसके बाद चतुर्थी कथा सुनकर कमलगट्टे के हलवे का सेवन करके यह व्रत खोला जाता है। 


कहानी से सीख - व्रत से मन को शांति व निर्मलता मिलती है। भगवान गणेश का श्रद्धापूर्वक पूजन, वंदन व व्रत करने वालों के दुखों का नाश अवश्य होता है।


स्कंद षष्ठी व्रत | Skanda Sashti Vrat in Hindi

चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को स्कंद षष्ठी कहा जाता है। हिंदू पंचांग के हिसाब से शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को स्कंद षष्ठी व्रत रखा जाता है। स्कंद षष्ठी पंचमी के आधे दिन में ही शुरू हो जाती है, इसलिए यह व्रत पंचमी को ही रखा जाता है। यह व्रत माताएँ संतान प्राप्ति के लिए करती हैं। संतान के साथ ही स्कंद षष्ठी व्रत करने से वैभव, धन, आदि में वृद्धि होती है और रोग व दुख दूर होते हैं। स्कंद षष्ठी को ही कांडा षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है। स्कंद षष्ठी व्रत की कथा भोलेनाथ के पुत्र कार्तिकेय से जुड़ी हुई है।

स्कंद षष्ठी व्रत पौराणिक कथा के अनुसार भोलेनाथ अपनी पत्नी सती के भस्म होने से बहुत दुखी थे। वे सती की मृत्यु पर विलाप करने के बाद दुखी होकर गहरी तपस्या में लीन हो गई। वे तीनों लोकों में किसी से संपर्क नहीं रखना चाहते थे।  


शिव जी के ऐसे ध्यानमग्न होने से धीरे-धीरे सृष्टि शक्तिहीन हो रही थी। दैत्यों ने सोचा कि हमें देवताओं पर विजय प्राप्त करने का इससे अच्छा अवसर भी नहीं मिलेगा। इसी सोच के साथ धरती पर तारकासुर नामक राक्षस ने अपना आंतक फैलाना शुरू कर दिया। धरती पर आंतक मचाने के बाद उसने स्वर्ग के देवताओं को भी जीत लिया।


दुखी देवता हाहाकार मचाते हुए ब्रह्मा जी के पास मदद की गुहार लेकर पहुँचे। देवताओं की प्रार्थना सुनने के बाद ब्रह्म देव ने कहा, “तारकासुर दैत्य का अंत सिर्फ भोलेनाथ का पुत्र कर सकता है। शिव पुत्र के हाथों ही इसकी मृत्यु लिखी हुई है। अब आप सबको मिलकर भगवान शिव को विवाह के लिए मनाना होगा।”


सती जी के भस्म होने के दुख के कारण भोलेनाथ अपनी तपस्या से उठना ही नहीं चाहते थे। वो सालों-साल इसी तरह तप में लीन रहे। तब किसी तरह से देवताओं की प्रार्थना पर भोलेनाथ अपनी तपस्या से उठे। जब उन्होंने विवाह की बात देवताओं से सुनी, तो तुरंत मना कर दिया। उन्हें बड़ी मुश्किल से भगवान विष्णु ने मनाया। उन्होंने भोलेनाथ से कहा, “आपसे कुछ छुपा नहीं है। आप जानते हैं कि पार्वती जी आपके लिए तप कर रही हैं। आपको उन्हें तप का फल देते हुए उनसे विवाह कर लेना चाहिए।”


भोलेनाथ ने भगवान विष्णु से कहा, “पहले पार्वती की परीक्षा लेनी होगी। उसके बाद ही विवाह के बारे में सोचा जा सकता है।”


बहुत से देवी देवताओं ने माता पार्वती की कई तरह से परीक्षा ली, लेकिन शिवजी से विवाह करने का उनका प्रण कोई तोड़ नहीं पाया। यहाँ तक कि उन्हें भगवान विष्णु के साथ विवाह करने का प्रस्ताव भी दिया गया। लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया। इस तरह माता पार्वती सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुईं और उनका विवाह शिव जी के साथ तय हो गया।


शिव-पार्वती विवाह का आलौकिक दृश्य देकर सभी देव-दानव धन्य हो गए। विवाह के बाद कार्तिकेय जी का जन्म षष्ठी तिथि पर हुआ। कार्तिकेय जी को मुर्गन, स्कंद, सुब्रमण्यम्, आदि नामों से भी जाना जाता है। इसी कारण कार्तिकेय जी की जन्म तिथि को स्कंद षष्ठी कहा जाता है।


इस दिन सुबह नहाकर कार्तिकेय जी के व्रत व पूजन का संकल्प लेना होता है। उसके बाद पूजा स्थल पर माता पार्वती, भगवान शिव, गणेश और कार्तिकेय जी की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करके पूजा की जाती है। 


पूजा में सबसे पहले गणेश जी की अर्चना करनी होती है। उसके बाद कार्तिकेय जी को जल अर्घ्य दिया जाता है। फिर वस्त्र और मिठाइयाँ चढ़ाकर फूल, माला, धूप, दीपक आदि दिखाई जाती हैं। तत्पश्चात् “देव सेनापते स्कंद कार्तिकेय भवोद्भव, कुमार गुह गांगेय शक्तिहस्त नमोस्तुते” मंत्र का उच्चारण किया जाता है। 



कहानी से सीख - किसी को इतना अत्याचारी नहीं होना चाहिए कि लोग उसके कारण हाहाकार करने लगें। ऐसे मनुष्य का विनाश निश्चित ही होता है।


रोहिणी व्रत कथा और विधि | Rohini Vrat Katha Aur Vidhi in Hindi

जैन कैलेंडर 2023 के हिसाब से आज रोहिणी व्रत है। यह व्रत रोहिणी नक्षत्र पर पड़ता है। इस व्रत को करने से परिवार में खुशहाली आती है। पत्नियाँ अपने पति की लंबी आयु के लिए भी रोहिणी व्रत रखती है। मन को पवित्र करने वाला और आशीर्वाद देने वाले रोहिणी व्रत कथा कुछ इस तरह है। 


रोहिणी व्रत कथा 


रोहिणी व्रत की कथा चंपापुरी राज्य के महाराज माधवा से संबंधित है। राजा माधवा की पत्नी का नाम लक्ष्मीपति था। इन दोनों की 7 संतानें थी। राजा को अपने सभी बच्चों में सबसे ज्यादा प्यार अपनी बेटी रोहिणी से था। 


बेटी जब बड़ी हुई, तो राजा ने एक ज्ञानी महापुरुष से पूछा, “मुझे भविष्य जानना है, कैसा पति मेरी बेटी को मिलेगा?”


ज्ञानी महापुरुष बोले, “राजन! आपकी बेटी के भाग्य में हस्तिनापुर के राजकुमार हैं। उन्हीं से उसका विवाह होगा।” 


कुछ समय बाद राजा माधव ने बेटी की शादी के लिए स्वयंवर का आयोजन किया। सभी जाने-माने राजाओं को महाराज माधव ने न्योता दिया था। सभी उस स्वयंवर में आए। राजा माधव की बेटी रोहिणी को हस्तिनापुर के राजकुमार अशोक पसंद आ गए। उन्हें वरमाला पहनाकर उसे अपना जीवन साथी चुन लिया।


दोनों का भव्य विवाह करवाकर राजा ने रोहिणी को राजकुमार अशोक के साथ उसके घर भेज दिया। दोनों खुशी-खुशी हस्तिनापुर में रहने लगे। राजकुमार एक दिन मुनिराज श्रीचरण से मिले। राजकुमार अशोक ने बहुत सी बातें पूछने के बाद अपनी पत्नी रोहिणी के बारे में पूछा, “पत्नी रोहिणी एकदम शांत रहती है, क्या आप उसके बारे में कुछ बताएंगे?”


मुनिराज श्रीचरण बोले, “यह स्वभाव उनके पुराने जन्म के कारण है। मैं रोहिणी की कथा सुनाता हूं कि वो कौन थी और क्या उसकी कहानी है।”


हस्तिनापुर में एक वस्तुपाल राजा थे। उनका एक अच्छा दोस्त था - धनमित्र। एक दिन धनमित्र के घर एक बेटी हुई। पैदा होते ही उसके शरीर से तेज गंध आ रही थी। तभी सबने मिलकर उसका नाम दुर्गंधा रख दिया।  


जब वह बड़ी हुई तो धनमित्र ने श्रीषेण नामक एक आदमी को पैसों का लालच देकर उसका विवाह अपनी बेटी से करवा दिया। वो दुर्गंधा के शरीर से निकलती गंध को सहन नहीं कर पाया। परेशान होकर श्रीषेण एक महीने में ही उसे छोड़कर जंगल चला गया।


दुर्गंधा दोबारा अपने पिता के घर चली गई। बेटी को लेकर उसके पिता धनमित्र एक मुनि के आश्रम गए और उससे बेटी के शरीर से गंध आने का कारण पूछा। 


मुनि ने बताया कि आपकी बेटी पहले राजा भूपाल की पत्नी थी। उसे अपनी सुंदरता का घमंड था। एक दिन राजा अपनी पत्नी के साथ जंगल गए। वहाँ एक मुनि आए, इसलिए राजा ने उनके लिए कुछ भोजन बनाने के लिए कहा। उसके मन में हुआ कि मैं रानी हूँ फिर भी मुझे काम करने के लिए बोल रहे हैं।


रानी ने गुस्से में जहरीला कड़वा कद्दू बना दिया। खाना खाते ही मुनि की मृत्यु हो गई। बाद में राजा को पता चला कि उनकी पत्नी ने जहरीला कद्दू मुनि को खिलाया है। उसे राजा ने अपने महल से निकाल दिया और पाप के चलते उसकी कोढ़ से मौत हो गई। 


मौत के बाद पहले पशु बनी और उसके बाद दुर्गंध फैलाने वाली लड़की के रूप में पैदा हुई है।


यह सब सुनकर धनमित्र ने मुनि से पूछा, “क्या किसी तरह से यह दुर्गंध दूर नहीं की जा सकती है।” 


मुनि ने कहा, “रोज यह रोहिणी व्रत करेगी, तो गंध दूर हो जाएगी। आपकी बेटी को पूरे पांच साल पांच महीने तक यह व्रत करते रहना होगा। दिनभर भूखे रहने के बाद दान और पूजा-पाठ करना होगा।”


रोहिणी व्रत करने के बाद दुर्गंधा के शरीर से दुर्गंध मिट गई। हस्तिनापुर के राजकुमार अशोक ने इतनी कहानी सुनने के बाद मुनि से पूछा, तो उसी व्रत के कारण इनका जन्म रोहिणी के रूप में हुआ है?


मुनिराज ने कहा, “हां, दुर्गंधा का ही व्रत करने के बाद रोहिणी बनकर पैदा हुई। पिछले व्रत और तप के कारण अब आपकी पत्नी का स्वभाव एकदम सात्विक हो गया। वो चंचल नहीं हैं, इसलिए चुप और शांत रहती हैं।”


राजकुमार ने मुनिराज से अपने जीवन के बारे में पूछा। 


मुनिराज ने कहा, “आप भील थे और पाप कर्म के कारण नरक चले गए। उसके बाद कुरूप होकर पैदा हुए। हर कोई आपसे घृणा करता था। रोहिणी व्रत से आपका रूप ठीक हुआ और पाप खत्म हो गए। उसके बाद राजा के घर में राजकुमार अशोक के रूप में आपका जन्म हुआ। 


रोहिणी व्रत इतना फलदायी है कि आप दोनों ने अपने पापों को क्षय करके पुण्य कमाया। रोहिणी व्रत की विधि आसान है, लेकिन उसे जानना जरूरी है।


हे राजकुमार, आप अगर दोबारा रोहिणी व्रत करना चाहते हैं तो उसके लिए सुबह उठकर नहाना होगा। उसके बाद रोहिणी व्रत का संकल्प लेना होता है। भगवान की पूजा करके पंचरत्न, तामे या सोने की मूर्ति स्थापित करनी होगी। धन की कमी हो, तो सामान्य मूर्ति भी स्थापित कर सकते हैं। उसके बाद फल, फूल, कपड़े, आदि चढ़ाकर दान करके रोहिणी व्रत कथा सुननी होगी।”


“इसके बाद दान-पुण्य करके शाम को दोबारा पूजा करके फलाहार करना होगा। शाम ढलने के बाद व्रती को कुछ नहीं खाना चाहिए। इसी से रोहिणी व्रत पूरा होता है और इसका फल प्राप्त होता है।”


रोहिणी व्रत अगले दिन जाकर पूरी तरह समाप्त होता है। मतलब रोहिणी नक्षत्र के दिन होकर मार्गशीर्ष तक चलता है।



कहानी से सीख - कर्म हमेशा इंसान के पीछे लगा रहता है, इसलिए अच्छे कर्म करके पुण्य का भागी बनना चाहिए। ईष्या से सिर्फ पाप बढ़ता है। 


विनायक चतुर्थी व्रत कथा | Vinayak Chaturthi Vrat Katha in Hindi

एक दिन भगवान शिव जी और माता पार्वती नर्मदा नदी के किनारे बैठे थे। माता पार्वती ने भोलेनाथ से कुछ देर चौपड़ खेलने का निवेदन किया। माता पार्वती का खेलने का मन था इसलिए भगवान शिव मान गए। उनके मन में हुआ कि खेल का फ़ैसला कौन करेगा? इसी सोच के साथ भोलेनाथ ने पहले एक मिट्टी का पुतला बनाया और फिर उस पुतले को खेल का निर्णायक बनाने के लिए उसमें जान फूंक दी।


पुतले में जान फूँकने के बाद वह एक बालक के रूप में आ गया। भोलेनाथ ने उसे आदेश दिया कि वो ध्यान से माता पार्वती और उनका चौपड़ का खेल देखे और विजेता का फ़ैसला करे। बालक को इतना कहने के बाद भगवान शिव खेल में मग्न हो गए। उनके और माता पार्वती के बीच तीन बार चौपड़ का खेल हुआ। खेल में जीती तो माँ पार्वती थीं, लेकिन उस बालक ने विजेता भोलेनाथ को घोषित कर दिया।


बालक के इस असत्यपूर्ण फ़ैसले से माँ पार्वती क्रोधित हो गईं। गुस्से में उन्होंने उस बालक को कठोर श्राप दे दिया। श्राप सुनते ही वह बालक माँ पार्वती के चरणों में गिर गया। उसने क्षमा याचना करते हुए कहा, “मैंने भूल से ऐसा फ़ैसला किया है। आप मुझे इतना कठोर श्राप ना दें। यह श्राप वापस लेने की कृपा करें।”


माँ पार्वती को उस पर दया आ गई, लेकिन उन्होंने कहा, “मैं दिया हुआ श्राप वापस नहीं ले सकती हूँ। हाँ, तुम अपनी गलती का प्रायश्चित करके श्राप मुक्त हो सकते हो। इस श्राप से मुक्त होने का उपाय भगवान गणेश की पूजा है। यहाँ श्री गणेश की पूजा के लिए कुछ नागकन्याएँ आएँगी, तब वो जिस विधि से श्री गणेश की पूजा व व्रत करें, तुम उसी विधि को दोहराकर पूजा व व्रत कर सकते हो।” 


सालों तक वह बालक नागकन्याओं के आने का इंतज़ार करता रहा और श्राप भोगता रहा। एक दिन भगवान की कृपा से श्री गणेश जी की पूजा के लिए कुछ नागकन्याएँ उसी रास्ते से गुजरीं। उसने पहले उन्हें श्रद्धापूर्वक गणेश जी की पूजा करते हुए देखा और फिर उनसे इस व्रत व पूजा की विधि के बारे में विस्तार से पूछा।


विधि का पता लगने के बाद उसने सच्चे मन से श्री गणेश को याद किया। फिर पौष मा​ह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन यह व्रत करने के लिए उस बालक ने सुबह स्नान करके साफ़ कपड़े पहनें। फिर हाथ में स्वस्छ जल, लाल फूल और अक्षत लेकर विनायक चतुर्थी व्रत और श्री गणेश जी की पूजा-अर्चना करने का संकल्प लिया।


संकल्प के बाद पूजा के स्थान पर श्री गणेश जी की प्रतिमा बनाकर स्थापित की। फिर विनायक चतुर्थी की पूजा के शुभ मुहूर्त के समय आसन पर बैठकर श्री गणेश को फूल, चंदन, अक्षत, दीप, जनेऊ, धूप, आदि अर्पित किए। 


फिर गणेश जी को वस्त्र, मौसम के अनुसार फल, दूर्वा चढ़ाकर मोदक का भोग लगाया। उसके बाद गणेश चालीसा और फिर विनायक चतुर्थी व्रत कथा का पाठ किया। उसके बाद गणेश जी की आरती की और लोगों को प्रसाद दे दिया। 


उस बालक के पूजन और व्रत से श्री गणेश इतने प्रसन्न हुए कि उसे दर्शन देने के लिए आ पहुँचे। उन्होंने दर्शन देने के बाद उस बालक से वरदान माँगने के लिए कहा। उसने श्री गणेश को माता पार्वती से मिले श्राप का पूरा किस्सा सुनाया और उससे मुक्त करने का निवेदन किया। मुस्कुराते हुए संकटहरता श्री गणेश ने उसे श्राप मुक्त कर दिया। 


विनायक चतुर्थी व्रत खोलने से पहले दान ज़रूर करें। आप व्रत विनायक चतुर्थी की रात को या अगले दिन सुबह भी खोल सकते हैं। दान देने के बाद श्री गणेश जी से भूल चूक के लिए क्षमा अवश्य माँगनी चाहिए। साथ ही इस दिन चँद्रमा के दर्शन करना वर्जित है। भूलकर भी उन्हें ना देखें।


कहानी से सीख - जब भी आपको कोई उत्तरदायित्व सौंपा जाए, उसे बिना किसी पक्षपात के पूरा करना चाहिए। अन्यथा परिणाम कष्टदायक हो सकता है। 


सोम प्रदोष व्रत कथा | Som Pradosh Vrat Katha in Hindi

एक नगर में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। कुछ समय के बाद परिवार के मुखिया का देहांत हो गया। विधवा ब्राह्मणी को सहारा देने वाला कोई नहीं था। अपनी जीवनशैली को सुचारू रूप से चलाने के लिए वह अपने बेटे के साथ भिक्षा माँगने के लिए निकल पड़ी। भीख में मिलने वाले अन्न से ही वह अपना और अपने बेटे का पेट भरती थी।

एक दिन भिक्षा मांगने के बाद जब ब्राह्मणी अपने घर वापस आ रही थी तो उसे रास्ते में एक लड़का दर्द से करहाता हुआ दिखा। वह उसके समीप पहुँची तो देखा कि वह घायल था। ब्राह्मणी को उस पर दया आ गई और उसे अपने साथ घर चलने के लिए कहा। वह घायल लड़का चुपचाप ब्राह्मणी के साथ उसके घर चला आया।

वह घायल लड़का विदर्भ के राजा का इकलौता पुत्र था। उस राजकुमार पर शत्रु राज्य के सैनिकों ने हमला किया था और बंदी बनाकर रख लिया था। उसे बंदी बनाने के बाद उसके राज्य पर भी कब्ज़ा कर लिया था। इसी के चलते उसके राज्य में बड़ा युद्ध छिड़ा हुआ था। एक दिन वो दुश्मन सैनिकों के हाथों से किसी तरह बचकर इधर-उधर भाग रहा था। सैनिकों के हमले के चलते वह ज़ख्मी था इसलिए भागते समय कमज़ोरी के कारण गिर गया था।

ब्राह्मणी उसे अपने घर लाकर अपने पुत्र के ही समान प्यार देने लगी। घायल होने के कारण वह ब्राह्मणी के घर में ही रहने लगा। ब्राह्मणी का पुत्र और वह राजकुमार अच्छे दोस्त बन गए। दोनों साथ में खेलते और उठते-बैठते थे। कुछ ही दिनों के बाद गंधर्व लड़की अंशुमति की नज़र उस राजकुमार पर पड़ी। उसके मन में हुआ कि यही मेरे पति होने चाहिए।

राजकुमार को अपने पति के रूप में धारण करने की मंशा से उसने अपने माता-पिता को उससे मिलने के लिए कहा। उन्होंने अपनी बेटी को मना नहीं किया और उसके साथ लड़के से मिलने के लिए ब्राह्मणी के घर आ गए। सबसे मुलाकात के बाद वो अपने घर चले गए। वहाँ से आने पर अंशुमति के माता-पिता ने आपस में बातचीत करते हुए कहा, “लड़का तो दिखने में अच्छा लगता है।” 

अगले ही दिन अंशुमति के माता-पिता के सपने में भगवान शंकर आए और उन्होंने उस लड़के के साथ अंशुमति का विवाह कराने का आदेश दिया। सपना टूटते ही दोनों ब्राह्मणी के घर गए और रिश्ता तय कर लिया। कुछ ही दिनों में दोनों का विवाह हो गया। विवाह के बाद राजकुमार अपने राज्य को दुश्मनों से बचाने के लिए रणभूमि के लिए निकल गया। अंशुमति के पिता ने उसकी मदद के लिए उसके साथ गंधर्व सेना भी भेज दी। 

ब्राह्मणी प्रतिदिन भगवान से यही प्रार्थना करती थी कि इस राजकुमार लड़के का परिवार व राज्य दुश्मनों से बच जाएं। तभी सोम प्रदोष व्रत का दिन आया। ब्राह्मणी हमेशा उस व्रत को करती थी। इस बार उसने व्रत के दौरान राजकुमार को उसका राज्य वापस मिलने की कामना की। व्रत के प्रभाव से और गंधर्व सेना की मदद से राजकुमार ने दुश्मनों को अपने राज्य से खदेड़ दिया।

दुश्मनों पर विजय हासिल करने के बाद वह अपने माता-पिता और पत्नी के साथ आनंद से रहने लगा। कुछ ही दिनों के बाद उसने ब्राह्मणी के पुत्र को अपने राज्य में प्रधानमंत्री का पद दे दिया। इस तरह से ब्राह्मणी के जीवन से दुख दूर हो गए। 

भगवान भोलेनाथ ने प्रदोष व्रत का फल देते हुए जिस तरह ब्राह्मणी के दुख हर लिए, वैसे ही वो अपने सभी भक्तों के दुखों को हरकर उन्हें खु़शियाँ देते हैं। इस कारण सभी को सोम प्रदोष व्रत करना चाहिए और व्रती को नियम से प्रदोष व्रत कथा पढ़नी व सुननी चाहिए। 

हर महीने की त्रयोदशी तिथि के सायंकाल में प्रदोष काल पड़ता है। माना जाता है कि इस समय भगवान शंकर कैलाश पर्वत में नृत्य करते हैं। सोमवार के दिन जो भी व्रत करके प्रदोष काल में भोलेनाथ की पूजा करते हैं, उस व्रती की हर इच्छा शिव जी पूरी करते हैं। इसके अलावा पापों को नष्ट करके उनके दुखों को दूर करते हैं। 

कहानी से सीख - सच्चे भक्त को भगवान कभी निराश नहीं करते। भले ही थोड़ा समय लगे लेकिन वो भक्त व व्रती के दुखों को दूर अवश्य करते हैं। 


संतोषी माता व्रत कथा | Santoshi Mata Vrat Katha in Hindi

सालों पहले की बात है। एक बुढ़िया थी और उसके सात बेटे थे। उनमें से छः बेटे कमाई करते थे, लेकिन एक बेटा कुछ भी नहीं कमाता था। वह बूढ़ी महिला अपने सभी 6 बेटों के लिए प्यार से खाना बनाती, उन्हें खिलाती और जो भी उनसे जूठन बच जाती वो अपने सातवें बेटे को दे देती थी। 


एक दिन सातवें बेटे ने अपनी पत्नी से कहा, “मेरी माँ मुझसे बड़ा प्रेम करती है। कितने प्रेम से खाना खिलाती है।”


पत्नी बोली, “हाँ, वो सबका झूठा खिलाकर तुमसे प्यार जताती हैं।” 


पति ने कहा, “मैं इस बात को बिल्कुल नहीं मान सकता।” 


पत्नी कहने लगी, “जिस दिन देख लोगे उस दिन जरूर मानोगे।”


जवाब में वह बोला, “हाँ, मैं अपनी आँखों से देखने के बाद ही इस बात पर यकीन करूँगा।”


कुछ दिन के बाद त्योहार आया। घर में सात तरह के पकवान और चूरमा के लड्डू भी बनें। सातवां बेटा यह देखना चाहता था कि उसकी माँ उसे जूठा खाना देती है या नहीं। इस बात की पुष्टि करने के लिए वह सिर दर्द का बहाना करके एक पतली चादर लेकर रसोई घर के एक कोने में सो गया।


वह उस चादर से सबकुछ देख पा रहा था। थोड़ी देर में उसने देखा कि माँ ने सुंदर आसन लगाकर सभी छः भाइयों को बड़े प्यार से भोजन कराया। सभी के खाने के बाद उनकी थालियों में बचे हुए लड्डू के टुकड़ों से एक साबुत लड्डू बनाया। 


फिर जूठन साफ़ करके उसने अपने सातवें बेटे को खाने के लिए आवाज़ देते हुए कहा, “तेरे सभी भाइयों ने खाना खा लिया है। तू कब खाएगा?”


सातवें बेटे ने दुखी मन से कहा, “माँ मुझे परदेश जाना है। मैं खाना नहीं खाऊँगा।”


इतना कहकर वह परदेश जाने लगा। वह जाने से पहले अपनी पत्नी के पास गया। वह गोशाला में गोबर से उपले (कण्डे) बना रही थी। उसने पत्नी से कहा, “मैं परदेश जा रहा हूँ। तुम संतोष पूर्वक अपने धर्म का पालन करती रहना।”


पत्नी जवाब में बोली, “आनंद से जाओ प्रिय। मेरी चिंता मत करना। हम राम भरोसे रहेंगे और ईश्वर तुम्हें सहारा देंगे। तुम अपनी निशानी देकर जाना जिससे कि मैं धैर्य से रह सकूँ।’


पति कहने लगा, “मेरे पास बस यह एक अँगूठी है। यह तुम ले लो और अपनी भी एक कुछ निशानी मुझे दे दो।”


पत्नी कहने लगी, “निशानी के रूप में आपको देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। बस यह गोबर भरे हुए हाथ हैं। इसी से मैं आपकी पीठ पर छाप मार देती हूँ।”


पत्नी के गोबर वाले हाथ के छाप अपनी पीठ पर लेकर वह दूर देश चला गया। 


परदेश पहुँचते ही उसने एक साहूकार के पास जाकर नौकरी के लिए पूछा। साहूकार को एक व्यक्ति की ज़रूरत थी। उसने कहा, “तुम रह जाओ। मैं तुम्हारा काम देखकर ही तुम्हें दाम दूँगा।”


नौकरी मिलने के बाद वह सुबह सात बजे दुकान में आ जाता और रात दस बजे तक वहीं काम करता। वह दुकान का सारा लेखा-जोखा सँभालने लगा। दुकान में कितना आया- कितना गया, सब बातें उसके दिमाग़ में और उसकी एक किताब में रहती थीं। 


साहूकार की दुकान में लगभग सात से आठ नौकर थे। उन सबके मन में हुआ कि यह तो होशियार है। उसका काम देखकर साहूकार भी खुश था। उसने तीन महीने के अंदर-ही-अंदर उसे अपने मुनाफ़े का भागीदार बना दिया। होते-होते कुछ ही सालों में वह काफ़ी पैसों वाला हो गया। उसपर उसका मालिक इतना भरोसा करता था कि सारा कारोबार उसकी देखरेख में छोड़कर चला जाता। 


उधर घर में उसकी पत्नी अपने सास-सुसर के अत्याचार सह रह थी। वह पूरे घर का काम करती, फिर उसे लकड़ी लेने के लिए जंगल जाना पड़ता था। उसे खाने में आटे के चोकर की रोटी मिलती थी। नारियल के कठोर खोल में पानी। वह सास-ससुर के इस व्यवहार से बेहद दुखी थी।


एक दिन जंगल जाते समय उसे कुछ महिलाएँ व्रत करते हुए दिखीं। उसने अपने आस-पास की महिलाओं से पूछा, “आप लोग किसका व्रत व पूजन कर रहे हैं? इसे करने की विधि क्या है और इससे क्या फल मिलता है मुझे बता दीजिए।” 


उनमें से एक महिला ने उत्तर दिया, “बहन, हम संतोषी माँ का व्रत कर रहे हैं। वो दरिद्रता और निर्धनता का नाश करती हैं। साथ ही अपने भक्त की मनोकामनाओं को पूर्ण कर देती हैं।” 


उस महिला ने आगे कहा, “बहन, तुमने संतोषी माता की व्रत विधि भी पूछी है, तो सुनो तुम गुड़ और चना लेना। तुम ये सवा आने का या सवा पाँच आने का ले सकती हो। उतने का ही लेना जितने से तुम्हें परेशानी न हो। फिर तुम्हें हर शुक्रवार को बिना कुछ खाए-पिए रहकर माँ संतोषी की कथा सुननी होगी। अगर सुनने वाला कोई इंसान न मिले, तो घी का दीपक जलाकर उसके आगे या फिर एक जल के पात्र को अपने सामने रखकर उसे तुम संतोषी माँ की कथा सुनाना।” 


“पूरे नियम का पालन करना और अगर तुम्हारा मनोरथ सिद्ध ना हो, तो समझ जाना कि नियम या विधि का क्रम टूट रहा है। ऐसा होने पर दोबारा से पूरे नियम का पालन करते हुए संतोषी माता का व्रत करना। जब भी तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाए, तो माता के व्रत का उद्यापन करना मत भूलना।”


“सिर्फ तीन महीने में ही माँ मनोरथ सिद्ध कर देती हैं। अगर किसी का भाग्य खराब है, ग्रह सही नहीं चल रहे हैं, तो माँ साल भर में उनका भाग्य सुधार देती हैं। जब भी मनोरथ सिद्ध हो, तभी उद्यापन करना बहन, बीच में नहीं।”


उसने आगे कहा, “संतोषी माँ का उद्यापन कैसे करें, यह भी सुन लो। उद्यापन के लिए तुम्हें चाहिए होगा अढ़ाई सेर आटा। उससे तुम खाजा बनाना। फिर खीर और चने का साग भी बनाना। आठ लड़कों को भोजन कराना। संभव हो, तो बच्चे अपने रिश्तेदारों के हों। जैसे जेठ, देवर, भाई, आदि। ऐस न हो पाए, तो पड़ोसियों के बच्चों को बुला लेना। उन्हें खाना खिलाने के बाद जितनी तुम्हारी क्षमता हो, उसके हिसाब से दक्षिणा के रूप में फल दे देना। उस दिन घर में खट्टा खाना एकदम मना है। भूल कर भी खट्टी चीज़ मत खाना।”


इतनी बातें जानने के बाद उस महिला को धन्यवाद कहते हुए सातवें बेटे की पत्नी अपने घर चली गई। उसने रास्ते में ही अपने पास मौजूद लकड़ी बेच दी। उससे मिलने वाले पैसों से उसने बड़े ही प्रेम से माँ संतोषी के लिए गुड़ और चना खरीदा। 


तभी आगे बढ़ते हुए उसे एक मंदिर दिखा। उसने आसपास के लोगों से पूछा कि यह मंदिर किसका है? लोगों ने बताया कि यह मंदिर संतोषी माँ का है। यह सुनते ही वह तेज़ी से उस मंदिर के अंदर गई और माँ के चरणों में लेटकर रोने लगी। उसने कहा, “माँ, मैं दीन-दुखी और अज्ञानी हूँ। मैं आपके व्रत के नियम नहीं जानती हूँ। मेरे दुखों को माँ दूर करो। अब मैं आपकी शरण में आई हूँ।” इतना कहकर कुछ देर रोने के बाद वह वहाँ से अपने घर चली गई।


संतोषी माता को उसपर दया आ गई। एक शुक्रवार बीतने के बाद जैसे ही दूसरा शुक्रवार आया उसी दिन उस महिला के पति का पत्र आया। तीसरे शुक्रवार को पति ने पैसे भेजे। 


यह सब देखकर उसके जेठ-जेठानी का मुँह बनने लगा। उनके बेटे कहने लगे कि अब तो काकी को रुपये और पत्र आने लगे हैं। इनका रुतबा अब घर में बढ़ने लगेगा।


उस महिला ने बड़े ही प्रेम से कहा, “पैसा आना तो घर के सभी सदस्यों के लिए अच्छा ही है।”


इतना कहकर वह दौड़ती हुई माँ संतोषी के मंदिर में चली गई। उसने माँ से कहा, “मैंने आपसे पैसे नहीं माँगे। मैं सिर्फ अपने पति के दर्शन करना चाहती हूँ। माता संतोषी ने ख़ुश होकर उसे कह दिया, “जा, तेरा पति तुझसे मिलने ज़रूर आएगा। इतना सुनते ही वह ख़ुशी के मारे दौड़ते हुए घर चली गई।”


अब संतोषी माँ ने सोचा कि मैं इस वचन को कैसे पूरा करूँगी। अब मुझे इसके पति को इसकी याद दिलानी पड़ेगी। इस सोच के साथ संतोषी माँ उस बूढ़ी औरत के बेटे के सपने में गई। उन्होंने पूछा, “तुम सो रहे हो?”


जवाब में वह बोला, “मैं जाग भी नहीं रहा हूँ और सो भी नहीं रहा हूँ।”


संतोषी माँ ने पूछा, “तुम्हारा घर-परिवार है या नहीं?”


उसने कहा, हाँ, मेरा हरा-भरा परिवार है। माँ है, पिता हैं, भाई हैं और पत्नी भी है।”


माता ने उस बताया, “तेरी पत्नी कष्ट झेल रही है। तेरे घरवाले उसे परेशान करते हैं। वो तुझसे मिलना चाहती है। तू उसके पास जा।”


बूढ़िया का सातवां बेटा बोला, “मुझे पता है कि वो वहाँ परेशान है। मैं यहाँ परदेश में हूँ। मैं उसके पास कैसे जाऊँ? हिसाब-किताब करना, माल बेचना है। यहाँ बहुत काम है। घर वापस जाने का कोई रास्ता नहीं सूझता है।”


माँ बोलीं, “तू सुबह नहाने के बाद संतोषी माता का जप करना, उनके सामने घी का दीप जलाना और उन्हें दंडवत प्रणाम करके दुकान चले जाना। इससे तेरा माल बिक जाएगा। धन जमा हो जाएगा और लेन-देन भी हो जाएगा।”


स्वप्न में जो सब देखा उस व्यक्ति ने वैसा ही किया। माँ को प्रणाम करने के बाद जैसे ही वो दुकान की गद्दी पर बैठा, तो उधार लिए हुए लोग उसे लौटाने के लिए आ गए। दूसरे लोग हिसाब लेने आए। कुछ लोग नकद सामान खरीदने के लिए आए। उसके सारे रुके हुए काम हो गए और शाम होते-होते दुकान में पैसोंं का ढेर लग गया।


उसने मन-ही-मन संतोषी माता को धन्यवाद कहा और गहने व कपड़े खरीदकर घर के लिए रवाना हो गया। 


उधर, उसकी पत्नी जंगल में लकड़ी काटकर घर लौट रही थी। तभी वो संतोषी माता के मंदिर में कुछ देर आराम करने के लिए बैठी। वो रोज़ाना वहाँ बैठती थी। उसने अचानक देखा कि वहाँ बहुत धूल उड़ रही है। उसने माँ से पूछा, “यह क्या हो रहा है?”


संतोषी माता ने जवाब दिया, “बेटी, तेरा पति तुझसे मिलने के लिए परदेश से आ रहा है। अब तू अपनी लकड़ियों के जल्दी से तीन भाग कर दे। एक भाग को नदी के किनारे रख देना, दूसरे भाग को मेरे मंदिर में और तीसरे भाग को अपने सिर पर।”


“यह लकड़ी का गट्ठर जब तेरा पति देखेगा, तो उसका प्रेम भाव जगेगा। वह कुछ देर यहाँ रुककर नाश्ता करेगा और फिर अपनी माँ से मिलने के लिए जाएगा। तू भी लकड़ी का एक गट्ठर लेकर जाना। जैसे ही आंगन में पहुँचे, तो माँ से कहना चोकर की रोटी दो, नारियल के कठोर खोल में पानी दो, आज यह मेहमान कौन आया है?”


माँ संतोषी की बात सुनकर उसने लकड़ी के तीन गट्ठर बना लिए और बताई गई जगहों पर रख दिए। 


कुछ ही देर में उसका पति वहाँ पहुँचा। उसने रास्ते में सूखी लकड़ियाँ देखकर सोचा कि यही आराम करके कुछ खा-पी लेता हूँ। उसके बाद गाँव जाऊँगा। उसने भोजन बनाकर खाया और कुछ देर आराम करके घर के लिए निकला।

उतने में ही उसकी पत्नी लकड़ियों का बोझ उठाते हुए आंगन में आकर अपनी सास को आवाज़ देते हुए बोली, “ लकड़ियाँ लो। मुझे चोकर की रोटी दो, नारियल के कठोर खोल में पानी दो। आज यह मेहमान कौन आया है?” 


तभी उसकी सास बाहर आई और कहने लगी, “अरे, तू ऐसा क्यों कह रही है? देख तेरा पति आया है। बैठ अच्छा-अच्छा खाना खा, अच्छे कपड़े पहन ले।”


उसी समय वह महिला के हाथ में अँगूठी देखता है। वह समझ जाता है कि यही मेरी पत्नी है। फिर भी अपनी माँ से पूछता है, “यह महिला कौन है?”


उसकी माँ ने कहा, “बेटा यह तेरी पत्नी है। पूरा दिन इसी तरह से घूमती रहती है। तेरे जाने के बाद से यह घर का कोई काम नहीं करती। बस चार वक़्त का खाना खाती है।”


बूढ़िया के सातवें बेटे ने कहा, “हाँ, मैंने आप दोनों को देखा है। आप मुझे दूसरे घर की चाबी दो। मैं वही रहूँगा।”


माँ ने बिना कुछ कहे चाबी दे दी। वह दूसरे मकान की तीसरी मंज़िल के कमरे में पहुँचा और उस कमरे को अच्छे से सजा लिया। दोनों पति-पत्नी सुख भोगने लगे। होते-होते शुक्रवार का दिन आया। उसने अपने पति से कहा, “मैंने संतोषी माँ का व्रत किया था। अब उसके उद्यापन का समय आ गया है।”


पति ने कहा, “तुम अच्छे से माँ का उद्यापन कर लो। कोई कमी मत करना।”


वह संतोषी माता के व्रत के उद्यापन की तैयारी में लग गई। उसने अपने जेठ-जेठानी के बेटों को उद्यापन में आने का निमंत्रण दिया। उन सभी ने उसे स्वीकार भी कर लिया।


मगर उनकी माँ ने उन्हें सिखाया कि तुम वहाँ जाकर खटाई खाने के लिए माँगना। इससे उसका उद्यापन पूरा नहीं होगा। 


उनके बेटे जब जीमने गए, तो उन्होंने पेट भरकर खीर और अन्य खाद्य पदार्थ खाए। फिर आखिर में कहा कि हमें खटाई चाहिए। खीर हमें पसँद नहीं आती है।


उसने कहा, “यह संतोषी माता के व्रत का उद्यापन है। इसमें किसी को खटाई नहीं मिलेगी।”


तब उन्होंने अपनी चाची से पैसे माँगे। उसने उन्हें पैसे दिए। आखिर में जाते-जाते उन लड़कों ने इमली की खटाई खरीदकर खा ली। 


इसके कारण उस महिला के घर माता संतोषी का प्रकोप पड़ना शुरू हो गया। पहले उसके पति को प्रदेश से राजा के दूत आकर अपने साथ ले गए। जेठानी उसे ताने मारने लगीं। यह सब होता देख वह महिला माँ संतोषी के मंदिर गई और कहा, “आपने मुझे ख़ुशी दी और फिर वापस दुख दे दिए।”


संतोषी माता ने कहा, “तूने उद्यापन में मेरा व्रत भंग किया।”


रोते हुए वह महिला कहने लगी, “माँ गलती से मैंने लड़कों को पैसे दिए और उन्होंने खुद से खटाई खाई थी। मैं दोबारा से आपका उद्यापन करूँगा। मुझे क्षमादान दे दो।”


संतोषी माँ बोलीं, “इस बार कोई ग़लती मत करना।”


उसने कहा, “नहीं माँ, इस बार कोई ग़लती नहीं होगी। आप मुझे बताओ कि अब मेरे पति कैसे लौटकर आएँगे?”


माता संतोषी ने बताया, “तू चिंता मत कर। यहाँ से घर के लिए निकलते हुए ही तुझे अपना पति रास्ते में दिख जाएगा।”


ठीक ऐसा ही हुआ। उसे अपना पति रास्ते में दिखा। उसने पूछा, “आपको वो कहाँ ले गए थे?”


अरे कुछ नहीं, मैंने इतने पैसे कमाए थे, तो उसका कर भरने के लिए राजा ने वहाँ बुलाया था।” उसके पति ने उत्तर दिया।


वह दोनों ख़ुशी-ख़ुशी घर चले गए। फिर वक़्त बीता और शुक्रवार आ गया। वह दोबारा अपने जेठ-जेठानी के बच्चों को बुलाने के लिए गई। उन्होंने इस बार भी निमंत्रण स्वीकार किया।


इस बार उनकी माँ ने उन्हें सिखाया कि तुम खाना खाने से पहले ही खटाई माँगना। उन्होंने ऐसा ही किया। इस बार कड़े शब्दों में उस महिला ने कहा, “तुम्हें खीर खानी है तो खाओ, वरना यहाँ से चले जाओ। उसने तभी ब्राह्मण के बेटों को बुलाया और उन्हें प्रेम से भोजन करा दिया। उसने उन्हें दक्षिणा की जगह एक-एक फल देकर विदा कर दिया। संतोषी माता इस बार के उद्यापन से प्रसन्न हो गईं। 


संतोषी माता के व्रत के फल से उसे नौ महीने बाद एक सुंदर बेटा हुआ। उसका बेटा बड़ा होकर रोज़ाना संतोषी माता के मंदिर जाता था। 


एक दिन संतोषी माता ने सोचा कि यह तो यहाँ रोज़ाना आ जाता है। आज मैं भी इसके घर जाती हूँ। इसी विचार के साथ उन्होंने एक भयानक रूप बना लिया। उन्हें घर में देखते ही उसकी सास चिल्लाई - चुड़ैल आई है, चुड़ैल आई है। उसके पोते उसे घर से भगाने लगे। उन्होंने घर के सारे दरवाज़े बंद कर दिए।


संतोषी माता को उस बुढ़िया की सातवीं बहु ने पहचान लिया था। वह दौड़ते हुए आगे भागी। उसकी सास को गुस्सा आया और कहने लगी, “तू कहाँ भागकर जा रही है? कुछ होश है या नहीं?” 


उसने अपनी सास को बताया कि वह मेरी माता हैं, जिनका मैंने व्रत किया था। वह कोई चुड़ैल नहीं हैं। सबने संतोषी माँ के चरणों में गिरकर क्षमा माँगी और कहा कि हम अज्ञानी हैं, इसलिए आपको पहचान नहीं पाए। आपक व्रत भंग करके भी हमने बहुत बड़ा अपराध किया है। हमें क्षमादान दे दीजिए। माता ने सबको क्षमा कर दिया।


तो यह थी संतोषी माता की कथा। इनकी कथा को सुनने वाले भक्तों और व्रत रखने वाले व्रती के सभी मनोरथ पूरे होते हैं। 


कहानी से सीख - हर व्रत और पूजा को विधिपूर्वक करना चाहिए और ईश्वर को पूरी लगन से पूजना चाहिए। तभी हमें उसका उचित फल प्राप्त होता है।


सावन सोमवार की कथा | Savan Somwar ki Katha in Hindi

अमरपुर नामक एक नगर में बड़ा धनी और जाना-माना व्यापारी रहता था। उस व्यापारी को जीवन में सिर्फ पुत्र रत्न की कमी थी, बाकि सबकुछ भगवान की कृपा से उसके पास भरपूर था। उसके मन में था कि मेरा व्यापार और इतनी धन-संपत्ति कौन संभालेगा? 


इसी कारण वह प्रत्येक सोमवार भगवान शिव की आराधना और व्रत करके पुत्र सुख माँगता था। प्रतिदिन सायंकाल में वह व्यापारी भगवान शिव के सामने एक घी का दीप जलाता, ताकि भोले नाथ खुश हो जाएं। उस साहूकार की भक्ति से प्रभावित होकर एक दिन माँ पार्वती ने भोलेनाथ से कहा, “प्रभु, यह आपका सच्चा भक्त है। हर सावन के सोमवार को व्रत और आराधना करता है। आपसे मेरी विनती है कि इसकी पुत्र रत्न की इच्छा को पूरा कर दें।”


भोले शंकर मुस्कुराए और कहने लगे, “मैं आपकी विनती के कारण इसे पुत्र का वरदान दे दूँगा। मगर इसका पुत्र सिर्फ 16 वर्ष ही जीवित रहेगा।”


माँ पार्वती से इतना कहने के बाद भगवान शिव ने व्यापारी के सपने में उसे यही बात कही। सुबह आँख खुलने पर व्यापारी पुत्र सुख के वरदान से खुश था, लेकिन उसकी जल्दी मृत्यु की ख़बर से दुखी भी था। दिल में पत्थर रखकर व्यापारी अपने जीवन को अन्य दिनों की तरह जीने लगा। पुत्र का वरदान मिलने के बाद भी वह सावन सोमवार का व्रत और भगवान शिव की पूजा करता रहा।


कुछ महीनों के बाद उस व्यापारी के घर एक बड़ा-ही सुंदर बेटा पैदा हुआ। उसके पैदा होने से उसके घर और आस-पड़ोस के सभी लोग प्रसन्न थे, लेकिन व्यापारी को खुशी नहीं थी। उसे पता था कि थोड़े समय के बाद यह हम सबको छोड़कर चला जाएगा और तब सभी को बहुत दुख होगा।


व्यापारी ने अपने पुत्र के अल्प आयु होने की बात अपने तक ही रखी। पुत्र रत्न मिलने से उसके घर में उत्सव मनाया गया। कुछ समय के बाद नामकरण समारोह के दौरान कुछ विद्वान ब्राह्मणो ने व्यापारी के बेटे का नाम अमर रख दिया। 


अमर धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। उससे सबका लगाव भी बढ़ रहा था। जैसे ही अमर 12 साल का हुआ, तो उसे व्यापारी ने वाराणसी भेजकर पढ़ाने का निर्णय लिया। व्यापारी के मन में था कि यह कुछ सालों तक हमसे दूर रहेगा, तो पुत्र मोह कुछ कम हो जाएगा और इसकी मृत्यु होने पर लोगों को कम दुख होगा।


इसी सोच के साथ उसने अमर के मामा दीपचंद को घर बुलाया और कहा कि इसे वाराणसी छोड़ आइए। वहीं रहकर यह शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करेगा।


व्यापारी की आज्ञा मिलते ही दीपचंद अपने भांजे को लेकर वाराणसी के लिए निकल गया। रास्ते में एक जगह आराम करने के लिए दोनों मामा-भांजे रूके। वहाँ एक राजकुमारी के शादी का समारोह चल रहा था। राजकुमारी चंद्रिका के होने वाले वर के पिता ने लड़की के परिवार से यह बात छुपाई थी कि उसके बेटे की एक आँख खराब है। अब उसके पिता के मन में था कि कहीं मेरे काने बेटे से विवाह करवाने से लड़की के परिवार या लड़की ने मना कर दिया, तो जग हँसाई होगी।


इसी चिंता में जैसे ही उसकी नज़र अमर पर पड़ी, तो उसके मन में एक तरकीब आई। उसने सोचा कि पहले मैं इस लड़के से राजकुमारी का विवाह करवा दूँगा। उसके बाद इन्हें धन देकर विदा करने के बाद अपने बेटे की बहू के रूप में इस राजकुमारी को ले आऊँगा।


इस योजना को अंजाम देने के लिए वह अमर के मामा से बात करने लगा। उसके मामा ने पैसों के लोभ में आकर हाँ कर दी। चंद्रिका से अमर का विवाह हो गया। उसके बाद उन्हें धन और आभूषण देकर उस व्यक्ति ने उन्हें वहाँ से विदा कर दिया।


वहाँ से जाने से पहले अमर ने चंद्रिका के दुपट्टे में सारा सच लिख दिया। अमर ने लिखा था कि तुम्हारे साथ धोखा हुआ है। तुम्हारा दुल्हा काना था, इसलिए मुझसे तुम्हारा विवाह कराया गया। अब मैं यहाँ से पढ़ाई के लिए वाराणसी जा रहा हूँ। तुम्हें लेने के लिए राजा का काना बेटा आएगा।

 

इस बात का पता चलते ही राजकुमारी चंद्रिका दुखी हो गई। उसने अपने पिता को सबकुछ विस्तार से बता दिया। राजा ने इस धोखे से क्रोधित होकर अपनी पुत्री को महल में अपने साथ रखने का फैसला किया।


उधर, अमर वाराणसी पहुँच गया। वह ख़ूब मन लगाकर पढ़ाई करता था। जैसे ही 16 साल का हुआ, तो उसने पिता की आज्ञा से एक बड़ा यज्ञ किया। यज्ञ करने के बाद उसने ब्राह्मणों को भोज कराया और दान देकर आशीर्वाद लिया। उस रात को जब वह सोया, तो उसी जगह उसके प्राण निकल गए। भगवान शिव की बात सत्य हो गई और 16 वर्ष की आयु में उस व्यापारी के बेटे की मृत्यु हो गई।


विधि के इस विधान से अमर के मामा अंजान थे। जैसे ही उन्होंने अपने भांजे को मृत देखा, तो वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। इस रुदन की आवाज़ माँ पार्वती ने भी सुनी। उन्होंने भोले नाथ से कहा, “प्रभु, यह विलाप कानों से सहा नहीं जा रहा है। आप इसका कष्ट दूर कर दीजिए।”


जैसे ही भोले नाथ ने अमर को देखा, तो कहने लगे, “हे पार्वती! यह वही बालक है, जिसे मैंने सिर्फ 16 साल तक जीवित रहने का वरदान दिया था। अब इसका वक़्त पूरा हो गया है।”


देवी पार्वती ने भगवान शिव से उस बालक को जीवित करने का विनम्र आग्रह करते हुए कहा, “इसके पिता आपके परम भक्त हैं। वो नियम से हर सोमावर का व्रत करते हैं और आपको भोग भी लगाते हैं। आपको उनकी भक्ति के फल के रूप में इस बालक के प्राण ज़रूर लौटाने चाहिए। वरना आपका भक्त पुत्र शोक में मर जाएगा।”


पार्वती जी की बात सुनकर भगवान शिव ने उस बालक को जीवित कर दिया। जैसे ही मृत बालक उठकर बैठा, तो उसका मामा हैरान हो गया। उसने अमर से कुछ नहीं कहा और अपना जीवन सामान्य तरीके से जीने लगा।


कुछ समय के बाद अमर की शिक्षा पूरी हो गई। वह अपने मामा के साथ उसी रास्ते से घर लौटने लगा, जिस रास्ते से आया था। मार्ग में ही अमर ने दोबारा एक यज्ञ किया। उसी जगह से गुज़र रहे राजा ने अमर को पहचान लिया। उन्होंने यज्ञ ख़त्म होने की प्रतिक्षा की और यज्ञ समाप्ति के बाद दोनों को अपने साथ राजमहल ले गए।


राजकुमारी चंद्रिका ने भी अमर को पहचान लिया। ख़ुशी-ख़ुशी राजा ने अपनी पुत्री को अमर के साथ विदा कर दिया। उनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्होंने कुछ सैनिक भी उनके साथ लगा दिए। 


अमर के मामा दीपचंद जैसे ही अपने नगर अमरपुर के पास पहुँचे उन्होंंने एक सैनिक को व्यापारी के पास भेजा और अपने, अमर व उसकी पत्नी के आने की सूचना दी।


व्यापारी दोबारा अपने बेटे से मिलने की आस छोड़ बैठा था। वह दुखी होकर एक कमरे में बंद था। उसकी पत्नी को भी अमर की 16 साल की ही आयु है, यह बात पता चल गई थी। दोनों पति-पत्नी ने प्रण ले रखा था कि जैसे ही हमें अपने पुत्र अमर की मृत्यु का समाचार मिलेगा, वैसे ही हम अपने जीवन का भी अंत कर देंगे। 


दुखी व्यापारी के पास आकर जैसे ही सैनिक ने अमर के लौटने की ख़बर सुनाई, तो वह ख़ुशी से झूम उठा। दौड़ते हुए वह नगर की ओर बढ़ा। उसने दीपचंद के साथ अमर को देखा और कुछ ही देर में अपनी बहू पर उसकी आँखें गईं। अमर के विवाह की बात से उसकी ख़शी दोगुनी हो गई।


इस तरह सोमवार का व्रत करके व्यापारी ने पुत्र सुख की प्राप्ति की और पुत्र की आयु को भी लंबा कर लिया। इसी कारण से श्रावण और सावन के सोमवार के व्रत का महत्व बहुत अधिक माना जाता है।



कहानी से सीख - पूजा-पाठ और सच्ची भक्ति में वह शक्ति है कि वह भाग्य को भी बदल सकती है।


पूर्णिमा व्रत कथा | Purnima Vrat Katha in Hindi

सालों पहले द्वापर युग में यशोदा माँ ने कृष्ण जी से कहा, “कान्हा, तुमने सारे संसार को बनाया, उसका पोषण किया और संहार करने की भी ताकत रखते हो। आज मुझे तुम किसी ऐसे व्रत के बारे में बताओ जो धरती की सभी महिलाओं का विधवा होने का भय खत्म कर दे और व्रती की सभी कामनाओं को पूरा कर दे।”

माँ की बात सुनते ही भगवान कृष्ण ने कहा, “माते, आपने बड़ा ही अच्छा प्रश्न किया है। मैं विस्तार से आपको ऐसे एक व्रत के बारे में बताता हूँ। यह पूर्णिमा का व्रत है, जिसे करके महिलाओं को सौभाग्य मिलेगा। इसके लिए महिलाओं को पूरी 32 पूर्णमासी व्रत करना होगा। इस व्रत को करने से सौभाग्य और सम्पत्ति दोनों की प्राप्ति होती है। इस व्रत को करने वाले के मन में भगवान शिव के लिए भक्ति भाव बढ़ने लगता है।”

फिर यशोदा मैय्या पूछने लगीं, “कान्हा, यह व्रत धरती पर सबसे पहले किसने किया था?”

श्रीकृष्ण ने बताया, “माँ सबसे पहले मृत्युलोक यानी धरती पर 32 पूर्णमासियों का व्रत एक ब्राह्मण धनेश्वर और उसकी धर्मपत्नी ने किया था। वह एक प्रसिद्ध नगर कातिका में रहता था। ब्राह्मण और उसकी पत्नी का आपस में बड़ा प्रेम था। उनके घर में किसी भी तरह की कमी नहीं थी। धन-संपत्ति और प्रतिष्ठा सबकुछ उनके पास था। बस नहीं थी तो कोई संतान, जो उन्हें माता-पिता कह सके।”

“इस बात से दोनों ही बड़े दुखी रहते थे। एक दिन कातिका नगरी में एक प्रसिद्ध योगी पहुँचे। वो रोज़ाना उस नगरी के सभी लोगों के घरों से दान लेकर भोजन करते थे, लेकिन कभी उस ब्राह्मण की पत्नी से कुछ नहीं लिया।”


“एक दिन वह योगी दान देने के लिए खड़ी ब्राह्मण की पत्नी रूपवती से दान लेने की जगह किसी दूसरे घर से दान लेकर गंगा किनारे चले गए। उन्हें भिक्षा में जो भी अन्न व अन्य खाद्य पदार्थ मिला था, वह उसे प्यार से खाने लगे। धनेश्वर ब्राह्मण ने यह सबकुछ देख लिया।”


“मन से धनेश्वर दुखी था। उसने योगी द्वारा भिक्षा का इस तरह अनादर होता देख उनसे पूछ लिया, “महाराज, आप सारे घरों से दान व भिक्षा लेते हैं, लेकिन कभी मेरे घर से नहीं लिया। क्या इसके पीछे कोई कारण है? हमसे कोई भूल हो गई है क्या?”


“योगी ने एकदम से कह दिया, वह घर जिसमें संतान ना हो, वहाँ का दान व भीख लेने से इंसान पतित यानी नीच हो जाता है। मुझे पता है कि तुम्हें संतान सुख नहीं मिला है। अब अगर मैं तुम्हारे यहाँ से कुछ ले लूँगा, तो मैं भी पतित हो जाऊँगा।”


“योगी के मुँह से ऐसी बातें सुनकर धनेश्वर ब्राह्मण उनके पैरों में गिरकर दुखी मन से कहने लगा, “ऐसी वजह है, तो आप मुझे पुत्र धन प्राप्त करने का कोई मार्ग बता दीजिए। हम संतान सुख ना मिलने से बेहद व्यथित हैं।”


“योगी को ब्राह्मण के ऊपर दया आ गई और उसे चण्डी माँ की आराधना करने के लिए कहा। योगी को प्रणाम करके और धन्यवाद कहते हुए वह ब्राह्मण अपने घर चला गया। घर पहुँचते ही उसने अपनी पत्नी को पूरी घटना बता दी। उसके बाद चण्डी माँ को खुश करने के लिए जप-तप करने जंगल चला गया।”

“वन पहुँचकर उस ब्राह्मण ने चण्डी माँ की मन लगाकर उपासना की और व्रत भी किये। व्रत के 16वें दिन में चण्डी देवी उस ब्राह्मण के सपने में आईं और कहा कि मैं तुमसे प्रसन्न हूँ और तुम्हें पुत्र रत्न का आशीर्वाद देना चाहती हूँ। मगर तुम्हारे बेटे की 16वें साल की उम्र में ही मृत्यु हो जाएगी। हाँ, अगर तुम और तुम्हारी पत्नी दोनों मिलकर 32 पूर्णमासी का व्रत पूरे नियम और विधि से करोगे, तो तुम्हारे पुत्र की आयु लंबी होगी। तुम रोज़ आटे से दीप बनाकर भोले नाथ की पूजा करना। बस पूर्णमासी तक तुम्हारे पास आटे के 32 दीप होने चाहिए।”

“सुबह तुम्हें पास में एक आम का वृक्ष दिखेगा। उस पर चढ़कर आम का एक फल तोड़कर जल्दी से उस पेड़ पर से उतरकर घर जाना होगा। उसके बाद अपनी पत्नी को यह सब बताना। फिर तुम्हारी पत्नी जब स्नान कर ले, तो उसे भोले शंकर का ध्यान लगाते हुए तोड़ा हुआ आम का फल खाने के लिए कहना। इससे भगवत कृपा के चलते उसका गर्भ ठहर जाएगा।”


“सपने में माँ द्वारा बताई गई सारी बातों का उस ब्राह्मण ने पालन करने की ठान ली। सुबह स्नान करके जब ब्राह्मण उस आम के पेड़ पर चढ़ने की कोशिश करने लगा, तो वो वह नहीं चढ़ पाया। तभी उसने विघ्नों को दूर करने वाले श्रीगणेश की वंदना की। उनसे खुद पर कृपा करते हुए पेड़ पर चढ़ने का बल माँगा, ताकि वह संतान प्राप्ति का मनोरथ पूरा कर सके।”

“धनेश्वर ब्राह्मण बार-बार बड़े ही प्रेम से विघ्न हरता, मंगल कार्य करने वाले, ऋद्धि-सिद्धि देने वाले गणेश जी मुझपर कृपा करें, कहता रहा। ब्राह्मण से प्रसन्न होकर गणेश जी ने उसे पेड़ पर चढ़ने का बल दे दिया। धनेश्वर ने पेड़ पर चढ़ते ही तेज़ी से एक फल तोड़ा और दौड़ते हुए घर चला गया।”

“उसने फिर देवी माँ के कहे अनुसार ही अपनी पत्नी को सबकुछ बताया और जल्दी से नहाकर वह फल खाने का आग्रह किया। पत्नी ने भी पति की बात मानते हुए स्नान करके भोले बाबा का ध्यान लगाकर उस फल को खा लिया। देवी माँ की कृपा से ब्राह्मण की पत्नी को गर्भ ठहरा और 9 महीने पूरे होते ही उसने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। अपने बालक का नाम दोनों ने मिलकर देवीदास रखा।”

“समय के साथ बालक बड़ा होता गया। देवी की कृपा से वह तेज़ बुद्धि वाला और सुशील हो गया। माँ दुर्गा के कहे अनुसार, उसके माता-पिता ने 32 पूर्णमासी का व्रत करना शुरू कर दिया, ताकि उनके बेटे की आयु लंबी हो।”

“व्रत पूरे होने से पहले ही ब्राह्मण और उसकी पत्नी को देवीदास की उम्र 16 वर्ष होने की चिंता सताने लगी। उनके मन में हुआ कि कहीं उसे कुछ हो न जाए। हम यह बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे।”

“इसी सोच के साथ ब्राह्मण की पत्नी ने अपने भाई को बुलावा भेजा। उसके आते ही उसने कहा कि हम चाहते हैं कि तुम अपने भांजे देवीदास को विद्याध्ययन के लिए काशी लेकर जाओ। वहाँ एक साल पढ़ाई करवाकर उसे वापस सकुशल ले आना। बस उसे अकेला नहीं छोड़ना है, इसलिए हम चाहते हैं कि तुम उसके साथ जाओ।”

“देवीदास के मामा ने उनकी बात मान ली। वह देवीदास को एक सुंदर से घोड़े पर बैठाकर अपने साथ काशी लेकर जाने लगे।”

“इधर, ब्राह्मण और उनकी पत्नी के 32 पूर्णमासी के व्रत पूरे हो गए। उधर, काशी जाते समय एक दिन दोनों मामा-भांजे किसी गाँव में ठहरे। उस गाँव में एक लड़की का विवाह होना था, लेकिन तभी उसके होने वाले वर को लकवा हो गया।”

“मंडप सज चुका था, इसलिए वर के पिता चिंतित थे, तभी उन्होंने देवीदास को देखा। उनके मन में हुआ कि विवाह से जुड़ी सारी विधि मैं इस लड़के के साथ करा देता हूँ। उसके बाद विवाह संबंधी दूसरे कार्य मेरे बेटे के साथ हो जाएंगे। यही बात उस वर के पिता ने देवीदास के मामा से कही। देवीदास के मामा ने कहा कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है। बस मेरी इच्छा है कि विवाह में मिलने वाले सारे उपहार हम लोगों को ही मिले। वर का पिता इस बात को मान गया।”

“इतनी सब बातचीत के बाद वह अपने भान्जे को वर बनाकर मंडप में ले गया। विवाह रात के समय पूरे विधि-विधान से संपन्न हो गया। तभी देवीदास के मन में व्यथा हुई कि ना जाने यह महिला कौन है। इसके भाग्य में क्या लिखा है। इस बात को सोचते हुए देवीदास की आँखों से आँसू बहने लगे।”

“वधू ने जब यह देखा, तो पूछा कि आप इतने परेशान क्यों हैं?”

“देवीदास ने मामा द्वारा उसे दुल्हा बनाने और असली वर के पिता से हुई सारी बातें उसे बता दी।”

“यह सुनते ही उस महिला ने कहा कि मेरा विवाह आपके साथ हुआ है। मैंने अग्नि के समक्ष आपको अपना पति धारण किया है। अब मेरे पति सिर्फ आप ही हैं और आप ही रहेंगे। ऐसा नहीं हुआ, तो यह ब्रह्म विवाह के खिलाफ होगा।”

“उस युवती को समझाने के लिए देवीदास कहने लगा, “देखिए, मेरी उम्र अधिक नहीं है। आपकी गति मेरे बाद क्या होगी। आप इस ज़िद्द को छोड़ दीजिए।”

“उस महिला ने उत्तर दिया, “मेरी गति मेरे स्वामी से जुड़ी है। आपका जो होगा, वही मेरा होगा। आप उठकर भोजन कीजिए। आपको ज़रूर भूख लगी होगी।”

“खाने के बाद दोनों सो गए। सुबह होते ही देवीदास ने अपनी पत्नी को 3 नग वाली एक अँगूठी दी और एक रूमाल देते हुए कहा कि यह तुम्हें संकेत देगा। तुम्हें एक पुष्षवाटिका बनानी होगी, जिससे मेरे जीवन के बारे में जान सको। तुम वहाँ नवमल्लिका यानी चमेली के फूल लगा देना। उसे रोज़ाना पानी देना। इस दौरान तुम खुश रहना और फूलों को ध्यान से देखना। जब भी मेरे जीवन का अंत होगा, ये फूल सूखने लगेंगे। अगर मेरे प्राण लौट आए, तो यह दोबारा से पहले की तरह ताज़ा हो जाएंगे। इतना कहकर देवीदास वहाँ से चला गया।”

“सुबह लकवा मारे हुए वर को लेकर उसके पिता मण्डप में पहुँचे। जैसे ही युवती ने उसे देखा, तो अपने पिता से कहा कि यह मेरे पति नहीं हैं। इनके साथ मेरा विवाह नहीं हुआ है। यदि यह कहते हैं कि यह वहीं हैं, जिनसे मेरा विवाह हुआ है तो रात को हमारे बीच हुई बातें बताएं। मेरे द्वारा अपने पति को विवाह के रीति-रिवाज के समय दिए गए आभूषण दिखाएं। यह सारी बातें सुनकर लकवा मारा हुआ लड़का और उसके पिता व रिश्तेदार सिर झुकाते हुए वहाँ से चले गए।” 

आगे भगवान कृष्ण ने कहा, “माते, इस तरह देवीदास काशी चला गया और इसी बीच उसका विवाह भी हो गया। कुछ समय के बाद रात को एक साँप उसे डसने के लिए आया। वह साँप काफ़ी ज़हरीला था, लेकिन माता-पिता के व्रत के प्रभाव के कारण वह देवीदास को काट नहीं पाया।”

“देवीदास को अपने साथ लेकर जाने के लिए अगले दिन स्वयं काल वहाँ पहुँचे। उन्होंने देवीदास के प्राण हरने की काफ़ी कोशिशें कीं। अंत में देवीदास बेहोश होकर ज़मीन पर गिर गया। किस्मत से उसी वक़्त पार्वती माँ और भोले शंकर भी वहाँ पर थे।”

“माँ पार्वती ने शिव जी से देवीदास को बचाने की बात कही। उन्होंने बताया कि इसकी माँ और पिता दोनों ने 32 पूर्णिमा व्रत पूरे कर लिए हैं, इसलिए इसे प्राण दान देने की कृपा करें। भोलेनाथ ने देवीदास की माता-पिता की भक्ति के चलते उस बालक को जीवन दान दे दिया।”

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, “माई इस व्रत के चलते काल को भी देवीदास के प्राण लौटाने पड़े और वह बेहोश बालक उठकर बैठ गया।”

“देवीदास की पत्नी ने जब पुष्पवाटिका में फूलों को सूखा हुआ पाया, तो दुखी हो गई। कुछ ही देर में जब फूल खिल उठे, तो वह दौड़ते हुए अपने पिता के पास गई। उन्हें सारी बातें बताकर कहा कि मेरे पति जीवित हैं। उनका काल टल गया है। अब आप मेरे पति को ढूंढकर निकालें।”

“एक साल की शिक्षा पूरी होने के बाद देवीदास अपने मामा के साथ ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर लौटने के लिए रवाना हो गया। देवीदास के ससुर अपने दामाद की तलाश में घर से निकलने ही वाले थे कि देवीदास और उसके मामा उनके घर पहुँच गए। युवती ने भी अपने पति को पहचान लिया और पिता को इशारा कर दिया।” 

“कुछ दिन नगर में बिताने के बाद देवीदास ने अपनी धर्मपत्नी और मामा के साथ घर वापसी की इच्छा व्यक्त की। उसके ससुर ने ढेर सारे उपहार देकर उन तीनों को वहाँ से विदा किया।”

“देवीदास जैसे ही अपने नगर के समीप पहुँचा, तो लोगों ने देवीदास के लौटने की ख़बर उसके घर तक पहुँचा दी। उसके माता-पिता का ख़ुशी के मारे ठिकाना नहीं था। उसके बाद जब उन्हें पता चला कि देवीदास अपने साथ पत्नी भी लेकर आया है, तो उनकी ख़ुशी और भी बढ़ गई।”

“थोड़ी ही देर में देवीदास अपनी पत्नी और मामा के साथ घर पहुँच गया। 16वां साल पूरा करने के बाद घर पहुँचे देवीदास ने सबसे पहले अपनी माँ और पिता के चरणों पर सिर रखकर उन्हें आदर व प्रेमपूर्वक प्रणाम किया।”

“धनेश्वर ने अपने पुत्र और उसकी पत्नी के लिए एक उत्सव रखा। उसमें उन्होंने ब्राह्मणों को दिल खोलकर दान दिया।”

भगवान श्रीकृष्ण ने माता यशोदा से आगे कहा, “माँ इस तरह ब्राह्मण धनेश्वर और उसकी पत्नी पुत्रवान हो गए और उनके पुत्र की आयु भी बढ़ गई। यह व्रत करने से पुत्र रत्न की प्राप्ति भी होती है और महिलाएं अपने पति की आयु को बढ़ाकर विधवा होने के दुख से बच सकती हैं। इसमें किसी को किसी तरह का संदेह नहीं करना चाहिए। 32 पूर्णमासी व्रत को लेकर यह मेरा वचन है।”  

इतना कहकर भगवान श्री कृष्ण ने अपनी वाणी को विराम दिया और माता यशोदा भी इस व्रत के बारे में जानकर प्रसन्न हो गईं।


कहानी से सीख - निरंतर प्रयास करके और भगवत भक्ति से मनुष्य मनचाहा फल प्राप्त कर सकता है।


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