एक दिन सातवें बेटे ने अपनी पत्नी से कहा, “मेरी माँ मुझसे बड़ा प्रेम करती है। कितने प्रेम से खाना खिलाती है।”
पत्नी बोली, “हाँ, वो सबका झूठा खिलाकर तुमसे प्यार जताती हैं।”
पति ने कहा, “मैं इस बात को बिल्कुल नहीं मान सकता।”
पत्नी कहने लगी, “जिस दिन देख लोगे उस दिन जरूर मानोगे।”
जवाब में वह बोला, “हाँ, मैं अपनी आँखों से देखने के बाद ही इस बात पर यकीन करूँगा।”
कुछ दिन के बाद त्योहार आया। घर में सात तरह के पकवान और चूरमा के लड्डू भी बनें। सातवां बेटा यह देखना चाहता था कि उसकी माँ उसे जूठा खाना देती है या नहीं। इस बात की पुष्टि करने के लिए वह सिर दर्द का बहाना करके एक पतली चादर लेकर रसोई घर के एक कोने में सो गया।
वह उस चादर से सबकुछ देख पा रहा था। थोड़ी देर में उसने देखा कि माँ ने सुंदर आसन लगाकर सभी छः भाइयों को बड़े प्यार से भोजन कराया। सभी के खाने के बाद उनकी थालियों में बचे हुए लड्डू के टुकड़ों से एक साबुत लड्डू बनाया।
फिर जूठन साफ़ करके उसने अपने सातवें बेटे को खाने के लिए आवाज़ देते हुए कहा, “तेरे सभी भाइयों ने खाना खा लिया है। तू कब खाएगा?”
सातवें बेटे ने दुखी मन से कहा, “माँ मुझे परदेश जाना है। मैं खाना नहीं खाऊँगा।”
इतना कहकर वह परदेश जाने लगा। वह जाने से पहले अपनी पत्नी के पास गया। वह गोशाला में गोबर से उपले (कण्डे) बना रही थी। उसने पत्नी से कहा, “मैं परदेश जा रहा हूँ। तुम संतोष पूर्वक अपने धर्म का पालन करती रहना।”
पत्नी जवाब में बोली, “आनंद से जाओ प्रिय। मेरी चिंता मत करना। हम राम भरोसे रहेंगे और ईश्वर तुम्हें सहारा देंगे। तुम अपनी निशानी देकर जाना जिससे कि मैं धैर्य से रह सकूँ।’
पति कहने लगा, “मेरे पास बस यह एक अँगूठी है। यह तुम ले लो और अपनी भी एक कुछ निशानी मुझे दे दो।”
पत्नी कहने लगी, “निशानी के रूप में आपको देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। बस यह गोबर भरे हुए हाथ हैं। इसी से मैं आपकी पीठ पर छाप मार देती हूँ।”
पत्नी के गोबर वाले हाथ के छाप अपनी पीठ पर लेकर वह दूर देश चला गया।
परदेश पहुँचते ही उसने एक साहूकार के पास जाकर नौकरी के लिए पूछा। साहूकार को एक व्यक्ति की ज़रूरत थी। उसने कहा, “तुम रह जाओ। मैं तुम्हारा काम देखकर ही तुम्हें दाम दूँगा।”
नौकरी मिलने के बाद वह सुबह सात बजे दुकान में आ जाता और रात दस बजे तक वहीं काम करता। वह दुकान का सारा लेखा-जोखा सँभालने लगा। दुकान में कितना आया- कितना गया, सब बातें उसके दिमाग़ में और उसकी एक किताब में रहती थीं।
साहूकार की दुकान में लगभग सात से आठ नौकर थे। उन सबके मन में हुआ कि यह तो होशियार है। उसका काम देखकर साहूकार भी खुश था। उसने तीन महीने के अंदर-ही-अंदर उसे अपने मुनाफ़े का भागीदार बना दिया। होते-होते कुछ ही सालों में वह काफ़ी पैसों वाला हो गया। उसपर उसका मालिक इतना भरोसा करता था कि सारा कारोबार उसकी देखरेख में छोड़कर चला जाता।
उधर घर में उसकी पत्नी अपने सास-सुसर के अत्याचार सह रह थी। वह पूरे घर का काम करती, फिर उसे लकड़ी लेने के लिए जंगल जाना पड़ता था। उसे खाने में आटे के चोकर की रोटी मिलती थी। नारियल के कठोर खोल में पानी। वह सास-ससुर के इस व्यवहार से बेहद दुखी थी।
एक दिन जंगल जाते समय उसे कुछ महिलाएँ व्रत करते हुए दिखीं। उसने अपने आस-पास की महिलाओं से पूछा, “आप लोग किसका व्रत व पूजन कर रहे हैं? इसे करने की विधि क्या है और इससे क्या फल मिलता है मुझे बता दीजिए।”
उनमें से एक महिला ने उत्तर दिया, “बहन, हम संतोषी माँ का व्रत कर रहे हैं। वो दरिद्रता और निर्धनता का नाश करती हैं। साथ ही अपने भक्त की मनोकामनाओं को पूर्ण कर देती हैं।”
उस महिला ने आगे कहा, “बहन, तुमने संतोषी माता की व्रत विधि भी पूछी है, तो सुनो तुम गुड़ और चना लेना। तुम ये सवा आने का या सवा पाँच आने का ले सकती हो। उतने का ही लेना जितने से तुम्हें परेशानी न हो। फिर तुम्हें हर शुक्रवार को बिना कुछ खाए-पिए रहकर माँ संतोषी की कथा सुननी होगी। अगर सुनने वाला कोई इंसान न मिले, तो घी का दीपक जलाकर उसके आगे या फिर एक जल के पात्र को अपने सामने रखकर उसे तुम संतोषी माँ की कथा सुनाना।”
“पूरे नियम का पालन करना और अगर तुम्हारा मनोरथ सिद्ध ना हो, तो समझ जाना कि नियम या विधि का क्रम टूट रहा है। ऐसा होने पर दोबारा से पूरे नियम का पालन करते हुए संतोषी माता का व्रत करना। जब भी तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाए, तो माता के व्रत का उद्यापन करना मत भूलना।”
“सिर्फ तीन महीने में ही माँ मनोरथ सिद्ध कर देती हैं। अगर किसी का भाग्य खराब है, ग्रह सही नहीं चल रहे हैं, तो माँ साल भर में उनका भाग्य सुधार देती हैं। जब भी मनोरथ सिद्ध हो, तभी उद्यापन करना बहन, बीच में नहीं।”
उसने आगे कहा, “संतोषी माँ का उद्यापन कैसे करें, यह भी सुन लो। उद्यापन के लिए तुम्हें चाहिए होगा अढ़ाई सेर आटा। उससे तुम खाजा बनाना। फिर खीर और चने का साग भी बनाना। आठ लड़कों को भोजन कराना। संभव हो, तो बच्चे अपने रिश्तेदारों के हों। जैसे जेठ, देवर, भाई, आदि। ऐस न हो पाए, तो पड़ोसियों के बच्चों को बुला लेना। उन्हें खाना खिलाने के बाद जितनी तुम्हारी क्षमता हो, उसके हिसाब से दक्षिणा के रूप में फल दे देना। उस दिन घर में खट्टा खाना एकदम मना है। भूल कर भी खट्टी चीज़ मत खाना।”
इतनी बातें जानने के बाद उस महिला को धन्यवाद कहते हुए सातवें बेटे की पत्नी अपने घर चली गई। उसने रास्ते में ही अपने पास मौजूद लकड़ी बेच दी। उससे मिलने वाले पैसों से उसने बड़े ही प्रेम से माँ संतोषी के लिए गुड़ और चना खरीदा।
तभी आगे बढ़ते हुए उसे एक मंदिर दिखा। उसने आसपास के लोगों से पूछा कि यह मंदिर किसका है? लोगों ने बताया कि यह मंदिर संतोषी माँ का है। यह सुनते ही वह तेज़ी से उस मंदिर के अंदर गई और माँ के चरणों में लेटकर रोने लगी। उसने कहा, “माँ, मैं दीन-दुखी और अज्ञानी हूँ। मैं आपके व्रत के नियम नहीं जानती हूँ। मेरे दुखों को माँ दूर करो। अब मैं आपकी शरण में आई हूँ।” इतना कहकर कुछ देर रोने के बाद वह वहाँ से अपने घर चली गई।
संतोषी माता को उसपर दया आ गई। एक शुक्रवार बीतने के बाद जैसे ही दूसरा शुक्रवार आया उसी दिन उस महिला के पति का पत्र आया। तीसरे शुक्रवार को पति ने पैसे भेजे।
यह सब देखकर उसके जेठ-जेठानी का मुँह बनने लगा। उनके बेटे कहने लगे कि अब तो काकी को रुपये और पत्र आने लगे हैं। इनका रुतबा अब घर में बढ़ने लगेगा।
उस महिला ने बड़े ही प्रेम से कहा, “पैसा आना तो घर के सभी सदस्यों के लिए अच्छा ही है।”
इतना कहकर वह दौड़ती हुई माँ संतोषी के मंदिर में चली गई। उसने माँ से कहा, “मैंने आपसे पैसे नहीं माँगे। मैं सिर्फ अपने पति के दर्शन करना चाहती हूँ। माता संतोषी ने ख़ुश होकर उसे कह दिया, “जा, तेरा पति तुझसे मिलने ज़रूर आएगा। इतना सुनते ही वह ख़ुशी के मारे दौड़ते हुए घर चली गई।”
अब संतोषी माँ ने सोचा कि मैं इस वचन को कैसे पूरा करूँगी। अब मुझे इसके पति को इसकी याद दिलानी पड़ेगी। इस सोच के साथ संतोषी माँ उस बूढ़ी औरत के बेटे के सपने में गई। उन्होंने पूछा, “तुम सो रहे हो?”
जवाब में वह बोला, “मैं जाग भी नहीं रहा हूँ और सो भी नहीं रहा हूँ।”
संतोषी माँ ने पूछा, “तुम्हारा घर-परिवार है या नहीं?”
उसने कहा, हाँ, मेरा हरा-भरा परिवार है। माँ है, पिता हैं, भाई हैं और पत्नी भी है।”
माता ने उस बताया, “तेरी पत्नी कष्ट झेल रही है। तेरे घरवाले उसे परेशान करते हैं। वो तुझसे मिलना चाहती है। तू उसके पास जा।”
बूढ़िया का सातवां बेटा बोला, “मुझे पता है कि वो वहाँ परेशान है। मैं यहाँ परदेश में हूँ। मैं उसके पास कैसे जाऊँ? हिसाब-किताब करना, माल बेचना है। यहाँ बहुत काम है। घर वापस जाने का कोई रास्ता नहीं सूझता है।”
माँ बोलीं, “तू सुबह नहाने के बाद संतोषी माता का जप करना, उनके सामने घी का दीप जलाना और उन्हें दंडवत प्रणाम करके दुकान चले जाना। इससे तेरा माल बिक जाएगा। धन जमा हो जाएगा और लेन-देन भी हो जाएगा।”
स्वप्न में जो सब देखा उस व्यक्ति ने वैसा ही किया। माँ को प्रणाम करने के बाद जैसे ही वो दुकान की गद्दी पर बैठा, तो उधार लिए हुए लोग उसे लौटाने के लिए आ गए। दूसरे लोग हिसाब लेने आए। कुछ लोग नकद सामान खरीदने के लिए आए। उसके सारे रुके हुए काम हो गए और शाम होते-होते दुकान में पैसोंं का ढेर लग गया।
उसने मन-ही-मन संतोषी माता को धन्यवाद कहा और गहने व कपड़े खरीदकर घर के लिए रवाना हो गया।
उधर, उसकी पत्नी जंगल में लकड़ी काटकर घर लौट रही थी। तभी वो संतोषी माता के मंदिर में कुछ देर आराम करने के लिए बैठी। वो रोज़ाना वहाँ बैठती थी। उसने अचानक देखा कि वहाँ बहुत धूल उड़ रही है। उसने माँ से पूछा, “यह क्या हो रहा है?”
संतोषी माता ने जवाब दिया, “बेटी, तेरा पति तुझसे मिलने के लिए परदेश से आ रहा है। अब तू अपनी लकड़ियों के जल्दी से तीन भाग कर दे। एक भाग को नदी के किनारे रख देना, दूसरे भाग को मेरे मंदिर में और तीसरे भाग को अपने सिर पर।”
“यह लकड़ी का गट्ठर जब तेरा पति देखेगा, तो उसका प्रेम भाव जगेगा। वह कुछ देर यहाँ रुककर नाश्ता करेगा और फिर अपनी माँ से मिलने के लिए जाएगा। तू भी लकड़ी का एक गट्ठर लेकर जाना। जैसे ही आंगन में पहुँचे, तो माँ से कहना चोकर की रोटी दो, नारियल के कठोर खोल में पानी दो, आज यह मेहमान कौन आया है?”
माँ संतोषी की बात सुनकर उसने लकड़ी के तीन गट्ठर बना लिए और बताई गई जगहों पर रख दिए।
कुछ ही देर में उसका पति वहाँ पहुँचा। उसने रास्ते में सूखी लकड़ियाँ देखकर सोचा कि यही आराम करके कुछ खा-पी लेता हूँ। उसके बाद गाँव जाऊँगा। उसने भोजन बनाकर खाया और कुछ देर आराम करके घर के लिए निकला।
उतने में ही उसकी पत्नी लकड़ियों का बोझ उठाते हुए आंगन में आकर अपनी सास को आवाज़ देते हुए बोली, “ लकड़ियाँ लो। मुझे चोकर की रोटी दो, नारियल के कठोर खोल में पानी दो। आज यह मेहमान कौन आया है?”
तभी उसकी सास बाहर आई और कहने लगी, “अरे, तू ऐसा क्यों कह रही है? देख तेरा पति आया है। बैठ अच्छा-अच्छा खाना खा, अच्छे कपड़े पहन ले।”
उसी समय वह महिला के हाथ में अँगूठी देखता है। वह समझ जाता है कि यही मेरी पत्नी है। फिर भी अपनी माँ से पूछता है, “यह महिला कौन है?”
उसकी माँ ने कहा, “बेटा यह तेरी पत्नी है। पूरा दिन इसी तरह से घूमती रहती है। तेरे जाने के बाद से यह घर का कोई काम नहीं करती। बस चार वक़्त का खाना खाती है।”
बूढ़िया के सातवें बेटे ने कहा, “हाँ, मैंने आप दोनों को देखा है। आप मुझे दूसरे घर की चाबी दो। मैं वही रहूँगा।”
माँ ने बिना कुछ कहे चाबी दे दी। वह दूसरे मकान की तीसरी मंज़िल के कमरे में पहुँचा और उस कमरे को अच्छे से सजा लिया। दोनों पति-पत्नी सुख भोगने लगे। होते-होते शुक्रवार का दिन आया। उसने अपने पति से कहा, “मैंने संतोषी माँ का व्रत किया था। अब उसके उद्यापन का समय आ गया है।”
पति ने कहा, “तुम अच्छे से माँ का उद्यापन कर लो। कोई कमी मत करना।”
वह संतोषी माता के व्रत के उद्यापन की तैयारी में लग गई। उसने अपने जेठ-जेठानी के बेटों को उद्यापन में आने का निमंत्रण दिया। उन सभी ने उसे स्वीकार भी कर लिया।
मगर उनकी माँ ने उन्हें सिखाया कि तुम वहाँ जाकर खटाई खाने के लिए माँगना। इससे उसका उद्यापन पूरा नहीं होगा।
उनके बेटे जब जीमने गए, तो उन्होंने पेट भरकर खीर और अन्य खाद्य पदार्थ खाए। फिर आखिर में कहा कि हमें खटाई चाहिए। खीर हमें पसँद नहीं आती है।
उसने कहा, “यह संतोषी माता के व्रत का उद्यापन है। इसमें किसी को खटाई नहीं मिलेगी।”
तब उन्होंने अपनी चाची से पैसे माँगे। उसने उन्हें पैसे दिए। आखिर में जाते-जाते उन लड़कों ने इमली की खटाई खरीदकर खा ली।
इसके कारण उस महिला के घर माता संतोषी का प्रकोप पड़ना शुरू हो गया। पहले उसके पति को प्रदेश से राजा के दूत आकर अपने साथ ले गए। जेठानी उसे ताने मारने लगीं। यह सब होता देख वह महिला माँ संतोषी के मंदिर गई और कहा, “आपने मुझे ख़ुशी दी और फिर वापस दुख दे दिए।”
संतोषी माता ने कहा, “तूने उद्यापन में मेरा व्रत भंग किया।”
रोते हुए वह महिला कहने लगी, “माँ गलती से मैंने लड़कों को पैसे दिए और उन्होंने खुद से खटाई खाई थी। मैं दोबारा से आपका उद्यापन करूँगा। मुझे क्षमादान दे दो।”
संतोषी माँ बोलीं, “इस बार कोई ग़लती मत करना।”
उसने कहा, “नहीं माँ, इस बार कोई ग़लती नहीं होगी। आप मुझे बताओ कि अब मेरे पति कैसे लौटकर आएँगे?”
माता संतोषी ने बताया, “तू चिंता मत कर। यहाँ से घर के लिए निकलते हुए ही तुझे अपना पति रास्ते में दिख जाएगा।”
ठीक ऐसा ही हुआ। उसे अपना पति रास्ते में दिखा। उसने पूछा, “आपको वो कहाँ ले गए थे?”
अरे कुछ नहीं, मैंने इतने पैसे कमाए थे, तो उसका कर भरने के लिए राजा ने वहाँ बुलाया था।” उसके पति ने उत्तर दिया।
वह दोनों ख़ुशी-ख़ुशी घर चले गए। फिर वक़्त बीता और शुक्रवार आ गया। वह दोबारा अपने जेठ-जेठानी के बच्चों को बुलाने के लिए गई। उन्होंने इस बार भी निमंत्रण स्वीकार किया।
इस बार उनकी माँ ने उन्हें सिखाया कि तुम खाना खाने से पहले ही खटाई माँगना। उन्होंने ऐसा ही किया। इस बार कड़े शब्दों में उस महिला ने कहा, “तुम्हें खीर खानी है तो खाओ, वरना यहाँ से चले जाओ। उसने तभी ब्राह्मण के बेटों को बुलाया और उन्हें प्रेम से भोजन करा दिया। उसने उन्हें दक्षिणा की जगह एक-एक फल देकर विदा कर दिया। संतोषी माता इस बार के उद्यापन से प्रसन्न हो गईं।
संतोषी माता के व्रत के फल से उसे नौ महीने बाद एक सुंदर बेटा हुआ। उसका बेटा बड़ा होकर रोज़ाना संतोषी माता के मंदिर जाता था।
एक दिन संतोषी माता ने सोचा कि यह तो यहाँ रोज़ाना आ जाता है। आज मैं भी इसके घर जाती हूँ। इसी विचार के साथ उन्होंने एक भयानक रूप बना लिया। उन्हें घर में देखते ही उसकी सास चिल्लाई - चुड़ैल आई है, चुड़ैल आई है। उसके पोते उसे घर से भगाने लगे। उन्होंने घर के सारे दरवाज़े बंद कर दिए।
संतोषी माता को उस बुढ़िया की सातवीं बहु ने पहचान लिया था। वह दौड़ते हुए आगे भागी। उसकी सास को गुस्सा आया और कहने लगी, “तू कहाँ भागकर जा रही है? कुछ होश है या नहीं?”
उसने अपनी सास को बताया कि वह मेरी माता हैं, जिनका मैंने व्रत किया था। वह कोई चुड़ैल नहीं हैं। सबने संतोषी माँ के चरणों में गिरकर क्षमा माँगी और कहा कि हम अज्ञानी हैं, इसलिए आपको पहचान नहीं पाए। आपक व्रत भंग करके भी हमने बहुत बड़ा अपराध किया है। हमें क्षमादान दे दीजिए। माता ने सबको क्षमा कर दिया।
तो यह थी संतोषी माता की कथा। इनकी कथा को सुनने वाले भक्तों और व्रत रखने वाले व्रती के सभी मनोरथ पूरे होते हैं।
कहानी से सीख - हर व्रत और पूजा को विधिपूर्वक करना चाहिए और ईश्वर को पूरी लगन से पूजना चाहिए। तभी हमें उसका उचित फल प्राप्त होता है।