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संकष्टी चतुर्थी कथा और व्रत विधि | Sankashti Chaturthi Katha Aur Vrat Vidhi in Hindi

एक बार माता पार्वती ने गणेश जी से पूछा, “वैशाख मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली संकष्टी चतुर्थी के दिन कौन से गणेश की पूजा करनी चाहिए और किस विधि से पूजन किया जाना चाहिए? व्रत के बाद कैसा भोजन ग्रहण करना उचित माना जाता है? 

इन सभी सवालों का जवाब देते हुए गणेश जी बोले, “ जगत माता, वैशाख कृष्ण पक्ष चतुर्थी के दिन ‘व्रकतुंड’ गणेश जी की पूजा करनी चाहिए। खाने में कमलगट्टे से बना हलवा लेना अच्छा माना जाता है। माता, द्वापर युग में श्री कृष्ण से राजन युधिष्ठिर ने यही सवाल किया था। इसके जवाब में भगवान कृष्ण ने उन्हें विस्तार से व्रत के बारे में बताया था। मैं भी आपको सुनाता हूँ, जो श्री कृष्ण ने सुनाया था। आप इसे श्रद्धा के साथ सुनें।


श्री कृष्ण ने राजा युधिष्ठिर से कहा, “वैशाख कृष्ण पक्ष चतुर्थी कल्याणदायनी होती है। इस चतुर्थी का व्रत करने वाले को जो फल मिलता है मैं उस बारे में बता रहा हूँ। प्राचीन समय की बात है तब प्रतापी राजा रंतिदेव को शत्रुओं का विनाशक कहा जाता था। उनके मित्र इन्द्र, यम, कुबेर, आदि देव थे। 


राजा रंतिदेव के ही राज्य में एक ब्राह्मण रहता था। उसका नाम था धर्मकेतु। उसकी दो पत्नियाँ थीं, जिनमें से एक पत्नी का नाम सुशीला और दूसरी पत्नी का नाम चंचला था। 


सुशीला का मन पूजा-पाठ में बड़ा लगता था। वह आये दिन कोई व्रत ज़रूर करती थी। व्रत करते-करते उसका शरीर कमज़ोर होने लगा। चंचला का स्वभाव सुशीला के ठीक विपरित था। वो कभी भी पूजा-पाठ और व्रत नहीं करती थी। उसे हरदम भरपेट खाना चाहिए होता था। 


वक़्त का चक्र घूमा और सुशीला की गोद उसी के लक्षणों वाली एक बेटी से भर गई और चंचला को बेटा हुआ। कुछ समय के बाद चंचला ने सुशीला को ताने मारना शुरू कर दिया। वो हरदम कहती, “क्यों री, तूने तो अपना पूरा शरीर व्रत रख-रखकर बर्बाद कर दिया। फिर भी तुझे पुत्र रत्न नहीं मिला। मैंने कभी कोई व्रत, धर्म, पूजा, पाठ, आदि नहीं किया लेकिन मुझे भगवान ने एक स्वस्थ पुत्र दिया है। तेरे ऐसे पूजा पाठ का क्या लाभ जिससे एक पुत्र रत्न भी ना मिले।”


अपनी सौतन से रोज़ इस तरह के ताने सुनकर सुशीला का हृदय छल्नी होने लगा। सुशीला ने फिर भी कुछ नहीं कहा। वो चुपचाप गणेश जी की आराधना करती रहती। एक दिन सुशीला की भक्ति और साफ़ मन के कारण गणेशजी प्रसन्न हो गए।  


पूजा से प्रसन्न होते ही श्री गणेश जी एक रात सुशीला को दर्शन देने के लिए आ गए। उन्होंने सुशीला से कहा, “मैं तुम्हारी पूजा-अर्चना व साधना से खु़श हूँ। तुम्हें आशीर्वाद के रूप में यह वरदान देता हूँ कि तुम्हारी बेटी के मुँह से हमेशा मोती व मूंगे प्रवाहित होंगे। तुम्हें एक बेटा भी होगा। वो वेद और शास्त्र का ज्ञाता होगा। इतना कहकर गणेश जी सुशीला के स्वप्न से चले गए।”


उसी समय सुशीला की नींद खुल गई। वो मन-ही-मन सपने में गणेश जी के दर्शन और उनसे मिले वरदान के कारण बहुत खु़श थी। भगवान गणेश के वरदान के अनुसार ही उसकी बेटी के मुँह से मोती और मूंगे प्रवाहित होने लगे। यह देखकर उसकी सौतन आश्चर्यचकित हो गई। कुछ ही समय के बाद सुशीला को एक सुंदर बालक हुआ। 


सुशीला बेहद ख़ुश थी, लेकिन उसकी खु़शी ज़्यादा दिन नहीं टिकी। पुत्र के जन्म के कुछ वक़्त के बाद राजा रंतिदेव के प्राण चले गए। पति की मृत्यु के बाद चंचला, जितना संभव हो सका, उतना धन समेटकर दूसरे घर में रहने लगी। सुशीला अपने दोनों बच्चों का लालन-पालन अपने पति के घर में ही रहकर कर रही थी। 


पति के स्वर्गवास के बाद भी सुशीला के पास धन-संपत्ति और संतोष देखकर चंचला से रहा नहीं गया। वो एक दिन हाथ जोड़ते हुए सुशीला के पास गई। वहाँ पहुँचकर उसने कहा, “मैं पापिन हूँ, जो तुम्हें ताने मारती थी। तुम मेरे अपराधों को भूल समझकर माफ़ कर दो।” 


क्षमा याचना करने के बाद चंचला ने भी सुशीला की ही तरह भगवान गणेश का व्रत और पूजन चतुर्थी के दिन करना शुरू कर दिया। गणेश जी ने चंचला के भी संकट दूर किए, पापों का नाश किया और उसपर अपनी कृपा बनाई। इसी कारण से श्री गणेश को  पुण्यदायक, पापनाशक, संकटनाशक कहा जाता है।


इतनी बात कहने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा, “आप भी विधिपूर्वक यह व्रत करेंगे, तो शत्रुओं का विनाश होगा और आप लोगों की हमेशा जीत होती रहेगी। 


ध्यान देने की बात है कि चतुर्थी हर महीने में दो बार पड़ती है। एक शुक्ल पक्ष में जिसे विनायिकी चतुर्थी कहते हैं और दूसरी कृष्ण पक्ष वाली चतुर्थी जिसे संकष्टी चतुर्थी कहा जाता है। 


संकष्टी चतुर्थी व्रत करने की इच्छा रखने वालों को सबसे पहले नहाकर व्रत का संकल्प लेना होता है। फिर सारा दिन निराहार रहकर गणेश जी का ध्यान व जप करना होगा।


शाम होते ही दोबारा स्नान करके साफ़ कपड़े पहनकर श्री गणेश की पूजा करनी होती है। इसके लिए दीप, धूप, अक्षत, सिंदूर, चंदन की आवश्यकता होती है। पूजा करने के बाद चाँद को अर्घ्य दें। उसके बाद चतुर्थी कथा सुनकर कमलगट्टे के हलवे का सेवन करके यह व्रत खोला जाता है। 


कहानी से सीख - व्रत से मन को शांति व निर्मलता मिलती है। भगवान गणेश का श्रद्धापूर्वक पूजन, वंदन व व्रत करने वालों के दुखों का नाश अवश्य होता है।


स्कंद षष्ठी व्रत | Skanda Sashti Vrat in Hindi

चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को स्कंद षष्ठी कहा जाता है। हिंदू पंचांग के हिसाब से शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को स्कंद षष्ठी व्रत रखा जाता है। स्कंद षष्ठी पंचमी के आधे दिन में ही शुरू हो जाती है, इसलिए यह व्रत पंचमी को ही रखा जाता है। यह व्रत माताएँ संतान प्राप्ति के लिए करती हैं। संतान के साथ ही स्कंद षष्ठी व्रत करने से वैभव, धन, आदि में वृद्धि होती है और रोग व दुख दूर होते हैं। स्कंद षष्ठी को ही कांडा षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है। स्कंद षष्ठी व्रत की कथा भोलेनाथ के पुत्र कार्तिकेय से जुड़ी हुई है।

स्कंद षष्ठी व्रत पौराणिक कथा के अनुसार भोलेनाथ अपनी पत्नी सती के भस्म होने से बहुत दुखी थे। वे सती की मृत्यु पर विलाप करने के बाद दुखी होकर गहरी तपस्या में लीन हो गई। वे तीनों लोकों में किसी से संपर्क नहीं रखना चाहते थे।  


शिव जी के ऐसे ध्यानमग्न होने से धीरे-धीरे सृष्टि शक्तिहीन हो रही थी। दैत्यों ने सोचा कि हमें देवताओं पर विजय प्राप्त करने का इससे अच्छा अवसर भी नहीं मिलेगा। इसी सोच के साथ धरती पर तारकासुर नामक राक्षस ने अपना आंतक फैलाना शुरू कर दिया। धरती पर आंतक मचाने के बाद उसने स्वर्ग के देवताओं को भी जीत लिया।


दुखी देवता हाहाकार मचाते हुए ब्रह्मा जी के पास मदद की गुहार लेकर पहुँचे। देवताओं की प्रार्थना सुनने के बाद ब्रह्म देव ने कहा, “तारकासुर दैत्य का अंत सिर्फ भोलेनाथ का पुत्र कर सकता है। शिव पुत्र के हाथों ही इसकी मृत्यु लिखी हुई है। अब आप सबको मिलकर भगवान शिव को विवाह के लिए मनाना होगा।”


सती जी के भस्म होने के दुख के कारण भोलेनाथ अपनी तपस्या से उठना ही नहीं चाहते थे। वो सालों-साल इसी तरह तप में लीन रहे। तब किसी तरह से देवताओं की प्रार्थना पर भोलेनाथ अपनी तपस्या से उठे। जब उन्होंने विवाह की बात देवताओं से सुनी, तो तुरंत मना कर दिया। उन्हें बड़ी मुश्किल से भगवान विष्णु ने मनाया। उन्होंने भोलेनाथ से कहा, “आपसे कुछ छुपा नहीं है। आप जानते हैं कि पार्वती जी आपके लिए तप कर रही हैं। आपको उन्हें तप का फल देते हुए उनसे विवाह कर लेना चाहिए।”


भोलेनाथ ने भगवान विष्णु से कहा, “पहले पार्वती की परीक्षा लेनी होगी। उसके बाद ही विवाह के बारे में सोचा जा सकता है।”


बहुत से देवी देवताओं ने माता पार्वती की कई तरह से परीक्षा ली, लेकिन शिवजी से विवाह करने का उनका प्रण कोई तोड़ नहीं पाया। यहाँ तक कि उन्हें भगवान विष्णु के साथ विवाह करने का प्रस्ताव भी दिया गया। लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया। इस तरह माता पार्वती सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुईं और उनका विवाह शिव जी के साथ तय हो गया।


शिव-पार्वती विवाह का आलौकिक दृश्य देकर सभी देव-दानव धन्य हो गए। विवाह के बाद कार्तिकेय जी का जन्म षष्ठी तिथि पर हुआ। कार्तिकेय जी को मुर्गन, स्कंद, सुब्रमण्यम्, आदि नामों से भी जाना जाता है। इसी कारण कार्तिकेय जी की जन्म तिथि को स्कंद षष्ठी कहा जाता है।


इस दिन सुबह नहाकर कार्तिकेय जी के व्रत व पूजन का संकल्प लेना होता है। उसके बाद पूजा स्थल पर माता पार्वती, भगवान शिव, गणेश और कार्तिकेय जी की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करके पूजा की जाती है। 


पूजा में सबसे पहले गणेश जी की अर्चना करनी होती है। उसके बाद कार्तिकेय जी को जल अर्घ्य दिया जाता है। फिर वस्त्र और मिठाइयाँ चढ़ाकर फूल, माला, धूप, दीपक आदि दिखाई जाती हैं। तत्पश्चात् “देव सेनापते स्कंद कार्तिकेय भवोद्भव, कुमार गुह गांगेय शक्तिहस्त नमोस्तुते” मंत्र का उच्चारण किया जाता है। 



कहानी से सीख - किसी को इतना अत्याचारी नहीं होना चाहिए कि लोग उसके कारण हाहाकार करने लगें। ऐसे मनुष्य का विनाश निश्चित ही होता है।


कार्तिक मास पूजा विधि नियम | Kartik Maas Pooja Vidhi Niyam in Hindi

कार्तिक मास को सबसे पवित्र माह माना जाता है। यह महीना शरद पूर्णिमा से शुरू होता है और कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है। कार्तिक मास में माँ लक्ष्मी और भगवान विष्णु की विशेष पूजा की जाती है, इसलिए इस समय पूजा-अर्चना और नियम को लेकर ख़ास ध्यान दिया जाता है। कार्तिक माह में व्रत, पूजा-पाठ, दान, ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करने से बड़ा पुण्य मिलता है। इसको लेकर कुछ विधि व नियम हैं, जिनका पालन करने पर ही पूजा-अर्चना का पूरा लाभ मिलता है। यह कुछ इस प्रकार हैं - 


1. सात्विकता - इस मास में सात्विकता का पालन करना आवश्यक है। माँस, मछली, शराब व अन्य अपेय पदार्थ व अभक्ष्य का भक्षण वर्जित होता है। इसके अलावा, कुछ लोग लहसुन, प्याज़ आदि तामसिक भोजन से भी परहेज़ करते हैं। 


कार्तिक मास पूजा विधि नियम | Kartik Maas Pooja Vidhi Niyam in Hindi
2. ब्रह्मचर्य -
कार्तिक माह में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। इस दौरान वैवाहिक संबंध स्थापित करने से बचना चाहिए। इस समय ज़मीन पर सोना भी अच्छा माना जाता है। इससे अहंकार समाप्त होता है। 

3. ब्रह्म मुहूर्त में स्नान - सात्विकता और ब्रह्मचर्य जैसे नियम का पालन करने के बाद कार्तिक मास में पूजा-पाठ व व्रत-ध्यान करने का सबसे पहला नियम व विधि यही है कि ब्रह्म मुहूर्त में स्नान किया जाए। गंगा माँ में डूबकी लगाना व घर के पानी में गंगा जल की कुछ बूंदें डालकर स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।


4. स्नान करते समय मंत्रोच्चार - कार्तिक मास में स्नान करते समय मंत्रों का उच्चारण करना भी लाभदायक होता है। भगवान विष्णु व माँ लक्ष्मी से जुड़ा कोई मंत्र पढ़ सकते हैं या फिर घर में सुख-समृद्धि लाने वाला कोई मंत्र पढ़ा जा सकता है। आप इस मंत्र का उच्चारण भी कर सकते हैं। दु:खदरिद्रयनाषाय श्रीविश्णोस्तोशणाय च। प्रात:स्नानं करोम्यद्य माघे पापविनाशानं ।।


5. तुलसी पूजन - कार्तिक मास में तुलसी पूजन का बहुत महत्व है। स्नान के बाद तुलसी माता की पूजा करनी चाहिए। तुलसी माँ को प्रेम पूर्वक जल अर्पण करें। तुलसी पूजन के बाद तुलसी रोपण भी फलदायी होता है। पूजा समाप्त होने के बाद तुलसी का सेवन करना भी कार्तिक मास में अच्छा माना गया है। 


6. सूर्य को अर्घ्य - तुलसी माँ की पूजा करने के बाद कार्तिक मास में सूर्य देव को जल चढ़ाया जाता है।


7. दीपदान करना - किसी पवित्र नदी में दीपदान करना भी पुण्यदायक होता है। पवित्र नदी के अलावा साफ़ तालाब, घर के कोने के साथ ही तुलसी के पेड़ पर दीपदान किया जा सकता है।


8. दान - यह सब करने के बाद अन्न दान, गौ दान, आंवले के पौधे का दान या तुलसी के पौधे का दान किया जाना लाभकारी होता है। पशुओं को हरा चारा भी खिलाया जा सकता है।


धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कार्तिक मास में इस बतायी गई विधि व नियम का पालन करना आवश्यक है। ऐसा नहीं करने पर कार्तिक मास में किये गए व्रत-पूजा का फल नहीं मिलता है या कम मिलता है।

नवरात्र व्रत विधि | | Navratri Vrat Vidhi in Hindi

“एक ब्राह्मणी की जिज्ञासा जानने के बाद दुर्गा देवी ने कहा कि मैं तुम्हें सभी पापों और कष्टों को दूर करने वाली और मोक्षदायिनी नवरात्र व्रत विधि बताऊँगी। आश्विन मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा में नौ दिनों तक लगातार व्रत रखते हुए एक समय का भोजन करना चाहिए। पढ़े-लिखे ब्राह्मण देवों से पूछकर पूजा के स्थल में कलश स्थापना करनी होगी और वाटिका बनाकर उसे रोज़ाना शुद्ध जल से सींचना होगा।”

“पूजा स्थल में माँ काली, माँ लक्ष्मी और माँ सरस्वती की मूर्तियों की रोज़ाना विधि पूर्वक पूजा करने के साथ ही पुष्ष अर्पित करने होंगे। बिजौरा का फूल अर्पित करने और उससे अर्घ्य देने से रूप मिलेगा। जायफल से कीर्ति यानी यश की प्राप्ति होगी, दाख से सभी कार्य सिद्ध होंगे। आंवला घर में सुख लाएगा और केला रत्न व ज़ेवर देगा। इस तरह फल और फूलों से अर्घ्य देकर हवन करना होगा।”


“हवन करना होगा घी, तिल, जौ, गेहूँ, खांड, शहद, नारियल, कदम्ब, बेल और दाख यानी अंगूर व मुनक्का से। गेहूँ से घर में धन-दौलत आती है। चम्पा के फूलों से भी धन मिलेगा, पत्तों से सुख, आंवला से कीर्ति, केले से संतान प्राप्ति, अंगूर यानी दाखों से सुख-समृद्धि, कमल के फूल से सम्मान और जौ, तिल, खंड, नारियल, आदि से मनोवांछित वस्तु व इच्छा की प्राप्ति होगी।”


“व्रती को हवन के बाद आचार्य को विनम्रता से प्रणाम करना होगा और दक्षिणा देनी होगी। नवरात्र व्रत को जो भी इस विधि से करेगा उसके सारे मनोरथ सिद्ध हो जाएंगे। नवरात्र के दिनों में जितना दान-पुण्य किया जाता है, उसका करोड़ों गुना व्रती को वापस मिलता है। इस महान व्रत से अश्वमेध यज्ञ करने का फल भी मिलता है। नवरात्र व्रत को किसी तीर्थ के मंदिर या अपने घर में ही विधि पूर्वक करना चाहिए।” 


इतनी कथा सुनाने के बाद ब्रह्म देव बोले, “हे बृहस्पति, इस तरह सुमति नामक ब्राह्मणी को नवरात्र व्रत व पूजा की विधि बताकर माँ वहाँ से अंतर्ध्यान हो गईं। कोई भी पुरुष व स्त्री इस व्रत को पूरी लगन, श्रद्धा और भक्ति से करके सुख-समृद्धि पा सकते हैं। इस लोक में सुख और परलोक में मोक्ष की प्राप्ति होगी।”


ब्रह्म देव से नवरात्र व्रत का महत्व, फल और विधि जानने के बाद बृहस्पति जी ने कहा, “आपने मुझपर बड़ी कृपा की है। इस महान व्रत के बारे में जानकर मैं धन्य हो गया। मुझे आपके अलावा कौन इस महान कथा के बारे में बताता?”


बृहस्पति जी के प्रेम पूर्वक वचनों को सुनकर ब्रह्म देव बोले, “आपने प्राणियों का कल्याण करने के लिए इस अलौकिक व्रत के बारे में पूछा। आप धन्य हैं।”

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