सालों पहले किसी गाँव में एक ब्राह्मण का परिवार रहता था। उसके परिवार में पत्नी और दो नौजवान युवक थे, जिनकी शादी के बाद ब्राह्मण का परिवार पूरा हो गया था। दोनों बहुओं की गोद लंबे समय तक खाली रही, लेकिन भगवत कृपा से एक दिन दोनों की गोद भर गई। बच्चे के लालन-पालन में दोनों ही बहुएं व्यस्त रहती थीं। इसी दौरान शीतला सप्तमी व शीतला अष्टमी का पर्व आ गया।
गाँव के कुछ लोग शीतला अष्टमी करते थे, तो कुछ शीतला सप्तमी। ब्राह्मण का परिवार हर साल पूरे नियम से शीतला सप्तमी किया करता था। इस पर्व के अनुसार, परिवार को ठंडा व बासी भोजन करना होता था। हर साल परिवार के लोग एक दिन पहले ही शीतला सप्तमी के लिए भोजन तैयार करके रख लेते थे।
इस बार दोनों बहुओं के मन में हुआ कि हमारा बच्चा अभी छोटा है, ऐसे में हमने ठंडा व बासी खाना खाया, तो हमारी सेहत पर ख़राब असर पड़ेगा। अगर हमारी सेहत बिगड़ गई, तो फिर बच्चे का ध्यान कौन रखेगा? इसी सोच के साथ उन्होंने बासी व ठंडा भोजन करने की जगह पशु के लिए आहार तैयार करने वाले बर्तन में गर्मा-गर्म बाटी और चुरमा तैयार कर लिया।
इतना करने के बाद सास-बहु सबने मिलकर शीतला माँ की पूजा की, उनकी कथा सुनी और अंत में शीतला माँ के भजन गाए। थोड़ी देर में ब्राह्मणी की दोनों बहुएं अपने बच्चों के रोने का बहाना करके वहाँ से निकल गईं।
उन्होंने जल्दी से तैयार की गई बाटी-चुरमा खाई और सासु माँ के पास चली गईं। सास ने भोजन खत्म करके शीतला माँ की आरती की। दोनों बहुओं ने भी साथ में आरती करके माँ का आशीर्वाद लिया।
पूजा-पाठ ख़त्म होने के बाद जब उनकी सास ने ठंडा व बासी खाना खाने के लिए कहा, तो बहुओं ने बहाना बना दिया। उसके बाद थोड़ी देर में बासी खाना खाने का दिखावा किया। सास ने काम में लगी बहुओं से कहा कि अपने बच्चों को भी भोजन करा दो, वो भूखे होंगे। जैसे ही वे दोनों अपने बच्चों के पास गईं, तो उन्हें मृत पाया।
बच्चों को मृत देखकर दोनों का दिल बैठ गया। वे ज़ोर-ज़ोर से रोने लगीं। इतने में उनकी सासु माँ वहाँ पहुँचीं और पूछा कि यह सब कैसे हुआ? विवशता के चलते दोनों बहुओं ने अपनी करनी सास को बता कि कैसे उन्होंने ताज़ा खाना बनाकर खाया था।
ब्राह्मणी ने उन्हें कहा कि तुम दोनों की गलत करतूत के चलते शीतला माता का प्रकोप तुम्हारे बच्चों को सहना पड़ा। संतान के मोह में तुम दोनों ने शीतला देवी के नियम को ताक पर रख दिया। तुम्हारे जैसा पापी कोई नहीं है। तुम दोनों इस घर से अभी निकल जाओ। यहाँ वापस आना है, तो मेरे दोनों पोतों को जीवित लेकर ही आना। इतना कहकर उन्होंने अपनी दोनों बहुओं को घर से बाहर निकालकर घर का दरवाज़ा बंद कर दिया।
बेबस देवरानी-जेठानी अपनी करनी पर पछताते हुए अपने-अपने बच्चों के शव को टोकरी में डालकर आगे बढ़ने लगीं। कुछ दूर चलने के बाद ब्राह्मणी की दोनों बहुएं थक गईं। उन्होंने पास में एक पेड़ देखा, तो वहाँ विराम करने की सोची। वहाँ पहले से ही दो युवतियां बैठी हुईं थीं। एक का नाम था शीतला और दूसरी का ओरी। दोनों ही अपने सिर पर जूंऐं पड़ने से परेशान थीं। दोनों कभी अपना सिर खुजातीं, तो कभी एक-दूसरे का।
यह देखकर ब्राह्मणी की दोनों बहुओं ने सोचा कि क्यों न आराम करते-करते इनकी जूंऐं भी निकाल दें। इससे उन्हें राहत मिलेगी। उन्होंने जाकर दोनों के सिर की जूंऐं निकाल दीं। उन्हें जैसे ही सिर की खुजली से आराम मिला, तो ओरी ने उन्हें पुत्र सुख का आशीर्वाद दिया।
उन बहुओं ने कहा, “पुत्र सुख तो हमें मिल चुका था, लेकिन आज ही उस सुख से हम वंचित हो गए हैं। शीतला माता के दर्शन के लिए दर-दर भटक रहे हैं, क्योंकि उनके प्रकोप से ही ऐसा हुआ है। तभी ओरी की बहन शीतला बोली, “तुम दोनों पापिन हो। तुम्हारा मुँह तक देखने के योग्य नहीं है। तुमने पुत्र मोह में दुष्टता की है। ठंडा भोजन करने की जगह गर्म खाना खा लिया।”
देवरानी-जेठानी को तुरंत समझ आ गया कि यह शीतला ही देवी शीतला हैं। दोनों उनके चरणों में गिर पड़ीं। उन्होंने कहा कि हमें नहीं पता था कि गर्म खाना खाने से ऐसा हो जाएगा। हमें अपनी करनी पर बहुत अफ़सोस है। आगे से हम ऐसा कभी नहीं करेंगे। हर साल चैत्र महीने में शीतला सप्तमी के दिन ठंडा खाना ही खाएंगे।
उनकी विनती सुनकर शीतला माता ने उन्हें माफ़ कर दिया और दोनों बच्चों को जीवित कर दिया। फिर उन्होंने विस्तार से वह कहानी सुनाई कि क्यों शीतला सप्तमी या शीतला अष्टमी के दिन ठंडा व बासी खाना खाया जाता है।
शीतला माता से उनकी कथा सुनकर दोनों देवरानी-जेठानी उनकी भक्ति में भाव-विभोर हो गईं। उन्होंने तभी प्रण ले लिया कि वो अपने गाँव वापस लौटकर शीतला माता का एक मंदिर बनवाएँगी और सभी को शीतला माता की कहानी भी सुनाएँगी।
शीतला माता और उनकी बहन को प्रणाम करके दोनों देवरानी-जेठानी अपने घर पहुँचीं। उनकी सास अपने पोतों को जीवित देखकर बहुत ख़ुश हुई। गाँव में सबको पता चल गया कि इन्हें शीतला देवी माँ के दर्शन हुए हैं। सभी ने उनका ख़ूब सत्कार किया।
दोनों देवरानी-जेठानी ने गाँव में शीतला देवी के मंदिर का निर्माण करवाने का प्रण गाँव वालों को बताया और उन्हें बताया कि आखिर क्यों शीतला सप्तमी और जो लोग शीतला अष्टमी मनाते हैं, उन्हें ठंडा व बासी भोजन करना चाहिए।
कथा शुरू करते हुए उन्होंने बताया कि बहुत वर्ष पहले चैत्र के महीने में होली के सातवें दिन शीतला माता धरती में भ्रमण कर रही थीं।
उसी समय शीतला माता को डुंगरी गाँव के कुछ लोगों ने पहचान कर गर्म-गर्म भोग लगाया। किसी ने गर्म हलवा, तो किसी ने गर्म खीर, किसी ने गर्म चने, तो किसी ने गर्म छोले, किसी ने गर्म रोटियाँ, तो किसी ने गर्म पूरियाँ।
इतना गर्म खाना खाकर शीतला माँ का मुँह जल गया। तब वह कुछ ठंडा खाने के लिए आगे की ओर चल पड़ीं। तभी किसी ने गलती से शीतला माता के ऊपर गर्म पानी डाल दिया। इससे उनका पूरा शरीर गर्मी से तपने व जलने लगा। शरीर में फफोले उठ गए।
वो दौड़ती हुईं पास की कुम्हारन के पास गईं। उन्होंने कहा, “मुझे ठंडी-ठंडी मिट्टी में लेटना है। मेरा पूरा शरीर गर्मी से जल रहा है। ठंडी मिट्टी में कुछ देर लोटने के बाद उनकी जलन कुछ कम हुई लेकिन ख़त्म नहीं, तो कुम्हारन ने उन्हें ठंडा पानी दिया, जिसे उन्होंने अपने शरीर में डाल लिया।
शरीर को ठंडक मिलने के बाद उन्होंने कुम्हारन से कहा कि मुझे कुछ खाने के लिए दो। मेरा मुँह भी जल रहा है। वो जल्दी से रात की बनाई हुई ठंडी रबड़ी और दही लेकर आई। उसे खाकर माँ को बहुत राहत मिली।
तब उस कुम्हारन ने कहा, “आपके बाल भी बिखरे हुए हैं। मैं उन्हें संभाल देती हूँ। तभी उसे अचानक शीतला माँ की तीसरी आँख नज़र आई। वो डर गई। माँ ने कहा कि तुम डरो नहीं। मैं शीतला देवी हूँ। धरती पर यूँ ही आ गई थी, तो मेरे गर्म खाने और गर्म पानी की वजह से यह सब हो गया।”
इतना होते ही शीतला देवी अपने असली रूप में आ गईं। उन्हें देखकर कुम्हारन ने प्रणाम किया और पूछा, हे चारभुजा वाली माँ, मैं आपको कहाँ बैठाऊँ? मेरा पूरा घर दरिद्रता से भरा हुआ है।”
तभी माता ने एक हाथ में झाड़ू लेकर उसके पूरे घर की दरिद्रता को दूर कर दिया और उस कुम्हारन को मनोवांछित फल माँगने के लिए कहा।
कुम्हारन ने कहा कि आप हमेशा के लिए इसी जगह पर विराजमान हो जाएंँ, यही मेरी इच्छा है। डुंगरी गाँव में विराजमान होने का आशीर्वाद देने के बाद माँ ने कहा कि आप ही मेरी सच्ची भक्त हो। आपने मुझे शीतलता प्रदान की। अब सिर्फ़ आपकी झोंपड़ी जलने से बचेगी और बाकि पूरे गाँव की झोंपड़ियाँ नष्ट हो जाएँगी।
देखते-ही-देखते ऐसा ही हुआ। सारे गाँव के लोग आश्चर्यचकित हो गए कि एक झोंपड़ी को छोड़कर बाकि झोंपड़ियाँ और घर कैसे धू-धू कर जल रहे हैं। सब उस कुम्हारन के पास आए। उसने सबको विस्तार पूर्वक शीतला माता से जुड़ा सारा किस्सा बताया। तभी से वहाँ के लोगों ने शीतला माता की पूजा-अर्चना शुरू कर दी और प्रण लिया कि शीतला सप्तमी व शीतला अष्टमी के दिन बासी और ठंडा खाना ही खाएँगे। इस तरह उस डुंगरी गाँव में शीतला माता का मंदिर भी बना और नियम से उनकी पूजा भी होने लगी। प्रसन्न होकर शीतला माता ने पूरे गाँव के लोगों की दरिद्रता को दूर कर दिया।
इतना कहकर दोनों देवरानी-जेठानी ने शीतला माता की कथा को विराम दिया। बता दें कि आज भी डुंगरी में शील की डुंगरी नाम का शीतला माता का मंदिर काफ़ी लोकप्रिय है। यहाँ माँ का मेला लगता है और श्रद्धालु बढ़-चढ़कर माँ के दर्शन के लिए डुंगरी गाँव पहुँचते हैं।
कहानी से सीख - हर व्रत और पूजन के नियम के पीछे कोई-न-कोई बड़ा कारण होता है, इसलिए किसी नियम को दरकिनार नहीं करना चाहिए। वरना इसके परिणाम ख़तरनाक हो सकते हैं।