चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को स्कंद षष्ठी कहा जाता है। हिंदू पंचांग के हिसाब से शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को स्कंद षष्ठी व्रत रखा जाता है। स्कंद षष्ठी पंचमी के आधे दिन में ही शुरू हो जाती है, इसलिए यह व्रत पंचमी को ही रखा जाता है। यह व्रत माताएँ संतान प्राप्ति के लिए करती हैं। संतान के साथ ही स्कंद षष्ठी व्रत करने से वैभव, धन, आदि में वृद्धि होती है और रोग व दुख दूर होते हैं। स्कंद षष्ठी को ही कांडा षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है। स्कंद षष्ठी व्रत की कथा भोलेनाथ के पुत्र कार्तिकेय से जुड़ी हुई है।
स्कंद षष्ठी व्रत पौराणिक कथा के अनुसार भोलेनाथ अपनी पत्नी सती के भस्म होने से बहुत दुखी थे। वे सती की मृत्यु पर विलाप करने के बाद दुखी होकर गहरी तपस्या में लीन हो गई। वे तीनों लोकों में किसी से संपर्क नहीं रखना चाहते थे।
शिव जी के ऐसे ध्यानमग्न होने से धीरे-धीरे सृष्टि शक्तिहीन हो रही थी। दैत्यों ने सोचा कि हमें देवताओं पर विजय प्राप्त करने का इससे अच्छा अवसर भी नहीं मिलेगा। इसी सोच के साथ धरती पर तारकासुर नामक राक्षस ने अपना आंतक फैलाना शुरू कर दिया। धरती पर आंतक मचाने के बाद उसने स्वर्ग के देवताओं को भी जीत लिया।
दुखी देवता हाहाकार मचाते हुए ब्रह्मा जी के पास मदद की गुहार लेकर पहुँचे। देवताओं की प्रार्थना सुनने के बाद ब्रह्म देव ने कहा, “तारकासुर दैत्य का अंत सिर्फ भोलेनाथ का पुत्र कर सकता है। शिव पुत्र के हाथों ही इसकी मृत्यु लिखी हुई है। अब आप सबको मिलकर भगवान शिव को विवाह के लिए मनाना होगा।”
सती जी के भस्म होने के दुख के कारण भोलेनाथ अपनी तपस्या से उठना ही नहीं चाहते थे। वो सालों-साल इसी तरह तप में लीन रहे। तब किसी तरह से देवताओं की प्रार्थना पर भोलेनाथ अपनी तपस्या से उठे। जब उन्होंने विवाह की बात देवताओं से सुनी, तो तुरंत मना कर दिया। उन्हें बड़ी मुश्किल से भगवान विष्णु ने मनाया। उन्होंने भोलेनाथ से कहा, “आपसे कुछ छुपा नहीं है। आप जानते हैं कि पार्वती जी आपके लिए तप कर रही हैं। आपको उन्हें तप का फल देते हुए उनसे विवाह कर लेना चाहिए।”
भोलेनाथ ने भगवान विष्णु से कहा, “पहले पार्वती की परीक्षा लेनी होगी। उसके बाद ही विवाह के बारे में सोचा जा सकता है।”
बहुत से देवी देवताओं ने माता पार्वती की कई तरह से परीक्षा ली, लेकिन शिवजी से विवाह करने का उनका प्रण कोई तोड़ नहीं पाया। यहाँ तक कि उन्हें भगवान विष्णु के साथ विवाह करने का प्रस्ताव भी दिया गया। लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया। इस तरह माता पार्वती सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुईं और उनका विवाह शिव जी के साथ तय हो गया।
शिव-पार्वती विवाह का आलौकिक दृश्य देकर सभी देव-दानव धन्य हो गए। विवाह के बाद कार्तिकेय जी का जन्म षष्ठी तिथि पर हुआ। कार्तिकेय जी को मुर्गन, स्कंद, सुब्रमण्यम्, आदि नामों से भी जाना जाता है। इसी कारण कार्तिकेय जी की जन्म तिथि को स्कंद षष्ठी कहा जाता है।
इस दिन सुबह नहाकर कार्तिकेय जी के व्रत व पूजन का संकल्प लेना होता है। उसके बाद पूजा स्थल पर माता पार्वती, भगवान शिव, गणेश और कार्तिकेय जी की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करके पूजा की जाती है।
पूजा में सबसे पहले गणेश जी की अर्चना करनी होती है। उसके बाद कार्तिकेय जी को जल अर्घ्य दिया जाता है। फिर वस्त्र और मिठाइयाँ चढ़ाकर फूल, माला, धूप, दीपक आदि दिखाई जाती हैं। तत्पश्चात् “देव सेनापते स्कंद कार्तिकेय भवोद्भव, कुमार गुह गांगेय शक्तिहस्त नमोस्तुते” मंत्र का उच्चारण किया जाता है।
कहानी से सीख - किसी को इतना अत्याचारी नहीं होना चाहिए कि लोग उसके कारण हाहाकार करने लगें। ऐसे मनुष्य का विनाश निश्चित ही होता है।