एक दिन बृहस्पति जी ने ब्रह्मा जी से कहा, “हे ब्राह्म देव, आप बेहद बुद्धिमान, सभी शास्त्रों के ज्ञाता और चारों वेदों का ज्ञान रखने वालों से श्रेष्ठ हैं। आप कृपा करके मुझे बताएं कि चैत्र, आश्विन और आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष में नवरात्रि व्रत और उत्सव क्यों मनाया जाता है? हे देव! नवरात्र का व्रत रखने से क्या फल मिलता है? यह व्रत कैसे करना चाहिए? सबसे पहले नवरात्रि व्रत किसने किया? यह सब विस्तार से बताएं।”
नवरात्रि व्रत को लेकर बृहस्पति जी से इतने सारे सवाल सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा, “हे बृहस्पते! लोगों के कल्याण के लिए आपने बहुत अच्छे प्रश्न किए हैं। वो हर मनुष्य धन्य है जो मनोरथ सिद्ध करने वाली माँ दुर्गा, महादेवी, सूर्य और नारायण का ध्यान करता है। नवरात्रि में व्रत रखने वालों की सभी कामनाएं देवी माँ पूर्ण करती हैं।”
“नवरात्रि व्रत करने से पुत्र की चाहत, धन की चाहत, विद्या की चाहत, सुख की चाहत, समृद्धि की चाहत, सब पूरी होती है। रोगी इंसान नवरात्र व्रत करे, तो उसका रोग दूर हो जाएगा और बंधन में बंधे इंसान का बंधन छूट जाएगा। इंसान की सारी परेशानियाँ और दिक्कतें दूर हो जाएँगी। घर में सम्पत्ति बरसती है। निसंतान के भाग खुल जाते हैं और उसे संतान सुख की प्राप्ति होती है। पापियों के पाप दूर हो जाते हैं। ऐसा कोई मनोरथ नहीं है, जो नवरात्रि व्रत से सिद्ध ना हो पाए।”
“मनुष्य जैसी दुर्लभ देह पाकर भी, जो नवरात्रि व्रत नहीं करता वह व्यक्ति माता-पिता के सुख से वंचित हो जाता है और दूसरे कई दुख भोगता है। वह कुष्ठ रोगी हो जाता है और दूसरे अंगों से हीन हो जाता है, उसे सन्तान प्राप्ति नहीं होती। इस तरह के अनेक दुख उसे भोगने पड़ते हैं।”
“नवरात्र व्रत नहीं करने से उस इंसान को धन-धान्य से रहित होना पड़ता है, वह भूख-प्यास से बिलखता है, गूंगा हो जाता है। अगर विधवा स्त्री भूल से भी इस व्रत को नहीं करती, तो उसे बहुत दुख भोगने पड़ते हैं। कोई व्यक्ति नवरात्रि व्रत नहीं रख पाता, तो उसे अपने परिवार वालों के साथ नवरात्रि की व्रत कथा करने के साथ ही सिर्फ एक समय का भोजन करना चाहिए।”
हे बृहस्पति, अब मैं सबसे पहले जिसने नवरात्रि व्रत किया वो पवित्र इतिहास सुनाता हूँ। यह कहते हुए ब्रह्मा देव ने नवरात्रि कथा शुरू की। उन्होंने कहा, “पठित नामक एक नगर में सालों से एक ब्राह्मण रहता था, जिसका नाम अनाथ था। वह माँ दुर्गा का बहुत बड़ा भक्त था। सभी सदगुणों से युक्त एक बेटी सुमति उस ब्राह्मण के घर पैदा हुई।”
“सुमति धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। वह अपने पिता को रोज़ाना दुर्गा माँ की पूजा करते हुए देखती थी। हर दिन पिता के साथ माँ दुर्गा की पूजा में रहने वाली सुमति एक दिन खेलने में इतनी व्यस्त हो गई कि माँ की पूजा में उपस्थित नहीं रही। इस बात से गुस्सा होकर सुमति के पिता ने बेटी से कहा कि आज सुबह तुम दुर्गा माँ की पूजा में नहीं रही, मैं तुम्हारा विवाह किसी कुष्ठ रोगी और दरिद्र इंसान से करा दूँगा।”
“दुखी होकर बेटी ने अपने पिता से कहा कि मैं आपकी बेटी हूँ। हर तरह से मैं आप पर निर्भर हूँ। आपको जैसा ठीक लगे वैसा मेरे साथ कीजिए और जहाँ मन हो वहाँ मेरा विवाह करवाइए। मुझे पूरा भरोसा है कि मेरे साथ वही होगा, जो मेरे भाग्य विधाता ने मेरे लिए लिखा है। मुझे मेरे कर्मों का ही फल मिलेगा।”
“अपनी बेटी को निडर और इस तरह की बात करते हुए सुनकर ब्राह्मण का गुस्सा और बढ़ गया। उन्होंने जल्दी एक कुष्ठ रोगी से अपनी बेटी का विवाह करवाकर कहा कि जाओ अब अपने कर्म भोगो। देखता हूँ कब तक तुम अपने भाग्य के भरोसे रहती हो?”
“पिता से ऐसी बातें सुनकर सुमति का मन बेहद उदास हो गया। उसके मन में हुआ कि मेरे दुर्भाग्य के कारण ही मुझे ऐसे पिता मिले हैं। दुखी मन से वह अपने पति के साथ वन की ओर चली गई। बड़ी मुश्किल से एक रात सुमति ने जंगल में बिताई।”
“तभी माँ भगवती उस जंगल में प्रकट हो गईं। उन्होंने सुमति से कहा कि मैं तुमसे काफी प्रसन्न हूँ। तुम्हें जो माँगना हो, वह तुम मुझसे माँग सकती हो। सुमति ने उनसे पूछा कि आप कौन हैं? आप मुझपर प्रसन्न क्यों हैं? सुमति की बात का जवाब देते हुए प्रकट हुई महिला ने कहा कि मैं आदिशक्ति हूँ। मैं ही सरस्वती हूँ, मैं ही ब्रह्मविद्या हूँ। मैं खुश होते ही लोगों के दुख हर लेती हूँ। तुम्हारे पिछले जन्म के पुण्य के कारण मैं तुमपर प्रसन्न हूँ।”
आदिशक्ति ने कहा, “मैं तुम्हें तुम्हारे पूर्व जन्म की घटना बताती हूँ। तुम निषाद (भील) की पतिव्रता स्त्री थी। एक दिन भील ने चोरी की, लेकिन सिपाही ने चोरी के इल्ज़ाम में तुम दोनों को पड़क कर जेल में डाल दिया। जेल में तुम लोगों को खाने के लिए कुछ नहीं मिलता था। तुम लोग भूखे-प्यासे ही रहते थे। वो समय नवरात्र का था। तुम दोनों ने पूरे नौ दिन बिना कुछ खाए-पिए ही गुज़ारे। उस समय के पुण्य के चलते मैं आज तुम्हें वरदान देना चाहती हूँ। तुम अपने मन का कुछ भी मुझसे माँग लो।”
सुमति ने माँ दुर्गा की बात सुनकर कहा, “आप मुझसे खुश हैं, तो मेरे पति का कुष्ठ रोग ठीक कर दीजिए।” देवी माँ बोलीं, “तुम अपने नौ दिनों के पुण्य में से एक दिन के व्रत का पुण्य अपने पति का कुष्ठ रोग दूर करने के लिए अपर्ण कर दो। ऐसा करने से तुम्हारे पति का कुष्ठ रोग दूर हो जाएगा और उसका शरीर स्वर्ण के समान चमकने लगेगा।”
कथा को आगे बढ़ाते हुए ब्रह्मा जी ने कहा, “सुमति ने जब देवी माँ से सुना कि उसका पति निरोग हो जाएगा, तो वह खुश हो गई। तभी उसके पति के शरीर से कुष्ठ रोग धीरे-धीरे समाप्त होने लगा और वह कुंदन के समान चमकने लगा। देवी माँ के इस चमत्कार को देखकर सुमति कहने लगी, “हे दुर्गा माँ, आप तीनों जगत के लोगों के कष्ट को दूर करती हैं, लोगो को खुशी, शांति, समृद्धि और निरोगता प्रदान करती हैं। हर किसी के मन की अच्छी कामना को पूर्ण करती हैं। मेरे पिता ने मुझे इस तरह का दण्ड दिया था और आपने मेरा उद्धार कर दिया। आप ही मेरी रक्षा कर सकती हैं। इस तरह सुमति माँ दुर्गा की स्तुति करने लगी।”
“सुमति की स्तुति सुनकर माँ दुर्गा ने उसे एक उदालय नाम के पुत्र का वरदान दिया, जो धनवान, बुद्धिमान, संयमी और कीर्तिवान होगा। पुत्र धन प्राप्ति का आशीर्वाद देने के बाद देवी माँ ने सुमति से मन में मौजूद अन्य इच्छा व वस्तु को मांगने के लिए कहा। माँ दुर्गा की बातें सुनकर सुमति कहने लगी, “हे देवी! आप मुझसे खुश हैं, तो मुझे नवरात्रि व्रत करने की वह विधि बताएं, जिससे आप खुश होती हैं और व्रत से मिलने वाले फल का भी वर्णन कीजिए।”
