बलराम को शेषनाग का अवतार और श्रीकृष्ण का बड़ा भाई माना जाता है। यह देवकी की छठवीं संतान थे, जिन्हें योगमाया से यशोद्धा माँ के गर्भ में भेजा दिया था। इसलिए इनका एक नाम संकर्षण भी है।
सबसे बलवान होने के कारण इन्हें बलभद्र भी कहते है। मथुरा में बलराम को दाऊजी कहा जाता था। यहां दाऊजी नाम का मंदिर भी है।
बलराम दाऊ लड़ाई में जरासंध को एक प्रहार में ही मारने की क्षमता रखते थे, लेकिन श्रीकृष्ण के कारण उन्होंने ऐसा नहीं किया। बलवान होने के बाद भी उन्होंने महाभारत के युद्ध में न शामिल होने का फैसला लिया।
उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा, “अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही हमारे प्रिय हैं। इनके युद्ध में हमें किसी का साथ नहीं देना चाहिए। इस धर्मसंकट में किसी का भी पक्ष लेना उचित नहीं होगा।”
श्रीकृष्ण को स्पष्ट था कि उन्हें क्या करना है। उन्होंने दुर्योधन को दो विकल्प दिए - मुझे अपने सारथी के रूप में चुनो या मेरी सेना को अपने साथ मिला लो। दुर्योधन को पता था कि श्रीकृष्ण के पास सबसे बड़ी सेना है, तो उसने उनकी सेना को चुन लिया। अर्जुन ने खुशी-खुशी श्रीकृष्ण को अपने सारथी के रूप में स्वीकार किया।
युद्ध की तैयारियों के समय एक दिन बलराम पांडवों की छावनी पहुंचे। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा, “मैंने तुम्हें समझाया था, हमें कौरवों-पांडवों की नासमझी में पड़कर किसी के पक्ष में खड़ा नहीं होना चाहिए। तुमने मेरी नहीं सुनी। तुम अर्जुन के कारण पांडवों के साथ खड़े हो और मैं तुम्हारे विरुद्ध खड़ा नहीं हो सकता। इसलिए अब मैं तीर्थ यात्रा पर रहा हूँ।”
आखिर में बलराम ने यदुवंशियों का नाश करके अपना देह समुद्र किनारे त्याग दिया था।
कहानी से सीख - भाइयों में सच्चा स्नेह हो, तो वो एक दूसरे के विरुद्ध कभी खड़े नहीं होते।